समर्थक

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

दोस्ती के नाम पे कुर्बान हो जाना पड़ा

 

लाख दानां थे, हमें नादान हो जाना पड़ा. दानां-बुद्धिमान

दोस्ती के नाम पे कुर्बान हो जाना पड़ा.

 

वो अचानक सामने हथियार लेकर आ गए

फिर हमें भी जंग का मैदान हो जाना पड़ा.

 

सांस की आवाज़ भी मंजूर होने को न थी

जान प्यारी थी हमें, बेजान हो जाना पड़ा.

 

देवता के भेष में फिरता हुआ चारो तरफ

एक दानव था जिसे इंसान हो जाना पड़ा.

 

उनके चेहरे के मुखौटे का पता हमको भी था

जानकर लेकिन हमें अनजान हो जाना पड़ा.

 

आपकी झोली बड़ी होती गई, भरती गई

आप निर्धन थे मगर धनवान हो जाना पड़ा.

-देवेंद्र गौतम

 


बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

उनका सूरज ढल रहा है.

 

उनका सूरज ढल रहा है.

चक्र उल्टा चल रहा है.

 

खटमलों का एक कुनबा

कुर्सियों में पल रहा है.

 

आईने की आंख को भी

एक चेहरा खल रहा है.

 

मुट्ठियों में राख लेकर

हाथ अपने मल रहा है.

 

आग से जिसने भी खेला

घर उसी का जल रहा है.

 

इक तरफ होठों पे पपड़ी

इक तरफ जल-थल रहा है.

 

भाड़ में जाए ये दुनिया

काम अपना चल रहा है.

 

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

जो हमारे प्यार का अंतिम निशां था, मिट गया?

 

इक नगर की इक गली में इक मकां था, मिट गया.

जो हमारे प्यार का अंतिम निशां था, मिट गया?

 

कुछ गुमां दिल में उठा, टूटे तअल्लुक भी कई

तल्खियां बढ़ती गईं, जो दर्मियां था मिट गया.

 

मेरे हिस्से की जो थोड़ी सी ज़मीं थी गुम हुई

मेरे हिस्से का जो थोड़ा आस्मां था मिट गया.

 

जो हकीकत थी मेरे दिल में रकम होती गई  

एक गोशे में कहीं दिल का गुमां था मिट गया.

 

अब कहीं कोई विरासत ही नहीं बाकी रही

रहगुजर पे जो नकूशे-कारवां था मिट गया.

 

राख के अंदर दबी चिनगारियों को क्या पता

आग की लपटों में जितना भी धुआं था मिट गया.

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

पुराने घर गिराए जा रहे हैं.

 पुराने घर गिराए जा रहे हैं.

निशां सारे मिटाए जा रहे हैं.

 

कई चेहरे छुपाए जा रहे हैं.

कई चेहरे दिखाए जा रहे हैं.

 

उन्हें हमसे गरज कुछ भी नहीं है

हमीं रिश्ता निभाए जा रहे हैं.

 

बजाहिर बात करते हैं गुलों की

मगर कांटे बिछाए जा रहे हैं.

 

वहीं पर जुर्म के धब्बे मिटेंगे

जहां मुजरिम बनाए जा रहे हैं.

 

भले ही कान पकते हों सभी के

वो अपनी धुन में गाए जा रहे हैं.

 

हमीं जयकार करते हैं हमेशा

हमीं पे जुल्म ढाए जा रहे हैं.


-देवेंद्र गौतम

सोमवार, 16 जनवरी 2023

एक चिनगारी की है दरकार जैसी भी सही

 

 फूस जलने के लिए तैयार जैसी भी सही.

एक चिनगारी की है दरकार जैसी भी सही

 

इसलिए तो चार पहिए की तलब उनको लगी

पोर्टिको को चाहिए थी कार जैसी भी सही.

 

हर सड़क पे इक सफर जारी रहे मेरे खुदा!

काफिला चलता रहे रफ्तार जैसी भी सही.

 

आखिरश वो वक्त के मलवे में दबते रह गए

तोड़ने निकले थे जो दीवार जैसी भी सही.


चार टुकड़ों में उसे करने का फन हमको पता

पास तो आए कोई तलवार जैसी भी सही.

 

धुंद में लिपटे सही मंजर मगर दिखते रहें

रौशनी कायम रहे बीमार जैसी भी सही.

 

कुछ दरारें ढूंढ लेगी और बहती ही रहेगी

रुक नहीं सकती नदी की धार जैसी भी सही.

-देवेंद्र गौतम

शनिवार, 14 जनवरी 2023

पारस छू ले लोहे से सोना बन जा.

 

तू पतझड़ में एक हरा पौधा बन जा.

पारस छू ले लोहे से सोना बन जा.

 

मौके मुश्किल से मिलते हैं, लाभ उठा

इस चेहरे को बदल नया चेहरा बन जा.

 

नई बिसातों से कुछ बात नहीं बनती

बिछी बिसातों के अंदर मोहरा बन जा.

 

बहुत दिनों तक दबा के रखे राज़ कई

अब सच के दरवाजे का पर्दा बन जा.

 

साये बदन से ज्यादा कीमत रखते हैं

जिसका बदन दिखे उसका साया बन जा

 

कल तक सबकी प्यास बुझाती ऐ नदिया! 

आज समंदर से मिलकर खारा बन जा.

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

हर बीज से दरख्त उगाया न जाएगा.

 


-देवेंद्र गौतम

 

सबका हुनर शुमार में लाया न जाएगा.

हर बीज से दरख्त उगाया न जाएगा.

 

हर शख्स का नसीब बनाया न जाएगा.

ये जाम हर किसी को पिलाया न जाएगा.

 

हर शख्स भले हाथ झटक ले जहान में

लेकिन कभी भी छोड़के साया न जाएगा.

 

कैसे पता चलेगा कि पिसना है सभी को

गेहूं में अगर घुन को मिलाया न जाएगा.

 

महसूस तो होगा कि मना लें चलो मगर

रूठे हुओं को फिर भी मनाया न जाएगा.

 

दरिया की हरेक मौज जिसे ढूंढती फिरे

वो शख्स डूबने से बचाया न जाएगा.

रविवार, 30 जनवरी 2022

मकीं को ढूंढते खाली मकान हैं साहब!

शिकारी जा चुके लेकिन मचान हैं साहब!

मकीं को ढूंढते खाली मकान हैं साहब!

 

वो जिनको तीर चलाने का फन नहीं आता

उन्हीं के हाथ में सारे कमान हैं साहब!

 

जो बोल सकते थे अपनी ज़ुबान बेच चुके

जो बेज़ुबान थे वो बेज़ुबान हैं साहब!

 

हमारी बात अदालत तलक नहीं पहुंची

जो दर्ज हो न सके वे बयान हैं साहब!

 

बस उनके खून-पसीने की कमाई दे दो

ज़मीं को सींचने वाले किसान हैं साहब!

 

जड़ों से उखड़ा हुआ पेड़ हूं मगर अबतक

मेरे वजूद के कुछ तो निशान हैं साहब!

-देवेंद्र गौतम


शनिवार, 22 जनवरी 2022

बस एक फूंक में जलता दिया बुझा डाला

 

बस एक फूंक में जलता दिया बुझा डाला.

जो इक निशान उजाले का था मिटा डाला.

 

उसके पुरखों ने बनाया था उसी की खातिर

उसे पता भी है, किसका मकां जला डाला?

 

लगाई आग जो उसने तो शिकायत कैसी

जो देखने की तमन्ना थी वो दिखा डाला.

 

हमारी साख बची है अभी तो ग़म क्या है

बढ़ा है कर्ज मगर ब्याज तो चुका डाला.

 

तमाशबीन की पलकें ठहर गईं गौतम

ऐसा बंदर था मदारी को ही नचा डाला.

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 9 जनवरी 2022

कत्आ

 

एक कत्आ

फूलों के पहलू में बैठे खंजर थे

चंदन के पेड़ों से लिपटे विषधर थे.

कितने जहरीले थे हमसे मत पूछो

जितना बाहर थे उतना ही अंदर थे.

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

ग़ज़लः साहब की हर बात हवाई होती है

 

हर बंदी के नाम रिहाई होती है.

साहब की हर बात हवाई होती है.

 

पहले चोंच लड़ाते हैं इक दूजे से

फिर आपस में हाथापाई होती है.

 

कौन गरीबों की फरियाद सुने आखिर

दौलतवालों की सुनवाई होती है.

 

एक-एक कर सब बाराती लौट चुके

देखें कब दुल्हन की विदाई होती है.

 

ऐसे लम्हे भी आते हैं जीवन में

ऊपर पर्वत नीचे खाई होती है.

 

बाहर-बाहर ईमां की बातें करते

अंदर-अंदर खूब कमाई होती है.

-देवेंद्र गौतम

 

 

गुरुवार, 6 मई 2021

हुकूमत में लचीलेपन की भी दरकार होती है

 

सभी की बात सुनती हो, वही सरकार होती है.

हुकूमत में लचीलेपन की भी दरकार होती है.

 

सियासत के लिए बर्बाद कर देते हो क्यों आखिर

बड़ी मुश्किल से कोई नस्ल जो तैयार होती है.

 

खुली आंखों से जो तसवीर दिखती है निगाहों को

वही तो बंद आंखों में कहीं साकार होती है.

 

हवेली दर हवेली राख का छिड़काव कर जाए

वो चिनगारी सही माने में तब अंगार होती है.

 

हवा सबके घरों की दास्तां कहती है लोगों से

मगर अपनी हक़ीकत से कहां दो चार होती है.

 

कई सपने हमारी नींद को झकझोर जाते हैं

हमारी आंख मुश्किल से मगर बेदार होती है

-देवेंद्र गौतम

 

 

रविवार, 15 सितंबर 2019

गज़ल ( चंद्रयान-2 की सफलता पर)


अपना इसरो कर गया कैसा करिश्मा देखना.
चांद को अब देखना अपना तिरंगा देखना.

चांद को खंगाल कर रख दे न थोड़ी देर में
अपना विक्रम नींद के पहलू से निकला देखना.

इक भगीरथ तप रहा है फिर हिमालय पर कहीं
स्वर्ग से इकबार फिर उतरेगी गंगा देखना.

हौसले की लह्र सी महसूस करना दोस्तो
आसमां पर जब कोई उड़ता परिंदा देखना.

(अब दूसरे रंग के शेर)
उनको सच्चाई नज़र आती नहीं, क्या बात है
उनकी आंखों पर पड़ा है कैसा पर्दा देखना.

जितनी कब्रें हैं उखाड़ो, गौर से देखो सही
गैरमुमकिन तो नहीं मुरदे को जिन्दा देखना.

जब तलक कटती नहीं उसकी ज़बां, बोलेगा वो
चारो जानिब नाच भी नाचेगा नंगा देखना.

शनिवार, 7 सितंबर 2019

माल मिर्जा का है, उड़ाओ जी

सच जहां तक छुपे, छुपाओ जी.
झूठ का सिलसिला बढ़ाओ जी.

भूत दिखने लगे हरेक चेहरा
हमको इतना तो मत डराओ जी.

कौन तुमसे हिसाब मांगेगा
माल मिर्जा का है उड़ाओ जी.

अब समंदर की क्या जरूरत है
एक चुल्लू में डूब जाओ जी

सब दुकानों का हाल खस्ता है
अपना सिक्का अभी चलाओ जी.

मेज़बानों का तकाजा समझो
खुद न खाओ हमें खिलाओ जी.

सब खरीदार हो गए रुखसत
अब तो अपनी दुकां उठाओ जी.

इस अंधेरे में कुछ नज़र आए
इक दिया तो कहीं जलाओ जी.

हाथ पर हाथ धर के मत बैठो
अपनी ताकत भी आजमाओ जी.

-देवेंद्र गौतम

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

अहमकों को हाथ में तक़दीर दे बैठे हैं हम




-देवेंद्र गौतम

अपनी बर्बादी की हर तहरीर दे बैठे हैं हम.
अहमकों के हाथ में तक़दीर दे बैठे हैं हम.

अपने बाजू काटकर उसके हवाले कर चुके
जितने तरकश में पड़े थे तीर दे बैठे हैं हम.

हाथ में माचिस की तीली, आंख में चिनगारियां
इक सुलगते शहर की तसवीर दे बैठे हैं हम.

क्या पता था चैन से सोने नहीं देगा कभी
जाने किस-किस ख्वाब की ताबीर दे बैठे हैं हम

एक-एक करके जकड़ लेंगी हमारी ख्वाहिशें
अपने-अपने नाम की जंजीर दे बैठे हैं हम.

अब तो अपनी गर्दनों की फिक्र करनी है हमें
कातिलों के हाथ में शमशीर दे बैठे हैं हम.

कुछ बचा रखा है हमने खुश्क मौसम के लिए
वो समझता है कि सब जागीर दे बैठे हैं हम.

रविवार, 1 सितंबर 2019

अनाड़ी हाथों में पासा है खेल क्या होगा



 कसेगी या न कसेगी नकेल क्या होगा.
अनाड़ी हाथों में पासा है, खेल क्या होगा

उड़ेल सकता है जितना उड़ेल, क्या होगा.
छुछुंदरों पे चमेली का तेल, क्या होगा.

तुम्हारे हाथ में पत्थर है, चला सकते हो
अगर उठा लिया हमने गुलेल, क्या होगा.

हमें ज़मीं की तहों का ख़याल रहता है
वो पूछते हैं सितारों का खेल क्या होगा.

जुनूं की कार ठिकाने पे कभी पहुंची है
धकेल सकता है जितना धकेल, क्या होगा.

करार हो भी गया तो वो टिक न पाएगा
भला अंधेरे उजाले का मेल क्या होगा.

कोई परिंदा कहीं पर न मार पाएगा
हरेक घर को बना देंगे जेल, क्या होगा.

-देवेंद्र गौतम



शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

चार दोहे


गूंगी नगरी, बहरा राजा, झूठी ठाट और बाट.
समय चटाई पर लेटा है, खड़ी है सबकी खाट.

सूखी धरती पानी मांगे, दलदल मांगे धूप.
दाता कहता बस रहने दो, जिसका जैसा रूप.

धनवानों पर धन बरसाए, निर्धन पऱ प्रहार.
यारब! तेरी दुनिया न्यारी, लीला अपरंपार.

हर याचक को पता है अपने दाता की औकात.
अधजल गगरी जब छलकेगी, बांटेगा खैरात.

-देवेंद्र गौतम

कत्आ़


घुड़कियां दे के हमें कब तलक डराएगा
वो सच को झूठ के पर्दे में जब छुपाएगा.
हरेक सच को इशारों में अयां कर देंगे
जबां पे ताला कहां तक कोई लगाएगा.
-देवेंद्र गौतम

सोमवार, 26 अगस्त 2019

कत्आ़


उसे मरना है उसकी मौत को आसान होने दो.
वो कुर्बानी का बकरा है उसे कुर्बान होने दो.
वो वहशी है चलो माना ज़मी के बोझ जैसा है
उसे इंसां बना सकते हो तो इनसान होने दो।

-देवेंद्र गौतम

रविवार, 18 अगस्त 2019

घर के अंदर घर जला देने की साज़िश हो रही है


मौसमों की किस कदर हमपर नवाज़िश हो रही है.
रोज आंधी आ रही है, रोज बारिश हो रही है.

रात-दिन सपने दिखाए जा रहे हैं हम सभी को
बैठे-बैठे आस्मां छूने की कोशिश हो रही है.

शक के घेरे में पड़ोसी भी है लेकिन दरहक़ीकत
घर के अंदर घर जला देने की साज़िश हो रही है.

जंगलों में आजकल इनसान देखे जा रहे हैं
और शहरों में दरिंदों की रहाइश हो रही है.

अब यहां कुदरत की खुश्बू की कोई कीमत नहीं है
हर तरफ कागज के फूलो की नुमाइश हो रही है.

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

सारा मंज़र धुआं-धुआं है अब


हर तरफ वहम है गुमां है अब
सारा मंजर धुआं- धुआं है अब.

खत्म होने को दास्तां है अब.
उनकी बातों में दम कहां है अब.

कुछ बचा ही नहीं छुपाने को
राज़ जितना भी था अयां है अब

मखमली सेज़ हो गई रुखसत
खुश्क पत्तों का आशियां है अब.

अपने सर का ख़याल रखिएगा
टूटने वाला आस्मां है अब.

वक़्त ने इस कदर लिया करवट
कल जो बच्चा था नौजवां है अब.

रक्स लफ़्जों का था जहां गौतम
एक ठहरा हुआ बयां है अब.

--देवेंद्र गौतम