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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.

एक लम्हा जिंदगी का आते-आते टल गया.
चांद निकला भी नहीं था और सूरज ढल गया.

अब हवा चंदन की खुश्बू की तलब करती रहे
जिसको जलना था यहां पर सादगी से जल गया.

धीरे-धीरे वक़्त ने चेहरे की रौनक छीन ली
होंठ से सुर्खी गयी और आंख से काजल गया.

आज मैं जैसा भी हूं तेरा करम है और क्या
तूने जिस सांचे में ढाला मैं उसी में ढल गया.

फिर उसूलों की किताबें किसलिए पढ़ते हैं हम
जिसको जब मौक़ा मिला इक दूसरे को छल गया.

अपना साया तक नहीं था, साथ जो देता मेरा
धूप में घर से निकलना आज मुझको खल गया.

बारहा हारी हुई बाज़ी भी उसने जीत ली
चलते-चलते यक-ब-यक कुछ चाल ऐसी चल गया.

---देवेंद्र गौतम