समर्थक

बुधवार, 1 जुलाई 2015

न काफिलों की चाहतें न गर्द की, गुबार की

न नौसबा की बात है, न ये किसी बयार की
ये दास्तान है नजर पे रौशनी के वार की
किसी को चैन ही नहीं ये क्या अजीब दौर है
तमाम लोग लड़ रहे हैं जंग जीत-हार की
न मंजिलों की जुस्तजू, न हमसफर की आरजू
न काफिलों की चाहतें न गर्द की, गुबार की
जहां तलक है दस्तरस वहीं तलक हैं हासिलें
न कोशिशों की बात है न बात अख्तियार की
हमारे पास तीरगी को चीर के चली किरन
तुम्हारे पास रौशनी तो है मगर उधार की
मुसाफिरों के हौसले पे बर्फ फेरता रहा
कहानियां सुना-सुना के वो नदी की धार की
देवेंद्र गौतम 08527149133