फ़ना होते हुए दीवार-ओ-दर की.
बड़ी मुद्दत पे याद आयी है घर की.
बना लेना घरौंदे इल्म-ओ-फन के
अभी कुछ खाक छानो दर-ब-दर की.
खुदा रूपोश होता जा रहा है
रवां होता गया अपने जुनूं में
हवा जिसको नज़र आयी जिधर की.
हम अपनी मंजिलों से आशना हैं
ज़रुरत क्या है हमको राहबर की.
बड़ी मुद्दत पे याद आयी है घर की.
बना लेना घरौंदे इल्म-ओ-फन के
अभी कुछ खाक छानो दर-ब-दर की.
खुदा रूपोश होता जा रहा है
के आंखें खुल रहीं हैं अब बशर की.
रवां होता गया अपने जुनूं में
हवा जिसको नज़र आयी जिधर की.
हम अपनी मंजिलों से आशना हैं
ज़रुरत क्या है हमको राहबर की.
------देवेंद्र गौतम