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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

ज़िल्लतें कितनी सहीं.....

ज़िल्लतें कितनी सहीं तब जाके नाकारा हुआ.
तुम न समझोगे कि मैं किस तर्ह आवारा हुआ.


शाम के बुझते हुए माहौल के पेशे-नज़र
मैं भी अब वापस चला घर को थका हारा हुआ.


इन दिनों हर चीज़ की तासीर उल्टी हो गयी
बर्फ के पहलू में मैं बैठा तो अंगारा हुआ.


मुद्दतों ठंढी हवाओं में बसेरा था मगर
गर्म लम्हों की इनायत से मैं बंजारा हुआ.


घूम फिर के आ गया हूं फिर तुम्हारे शहर में
और मैं जाता कहां तकदीर का मारा हुआ.


दुश्मनों के दरमियां  वो कौन है गौतम कि जो
आशना तक भी नहीं और जान से प्यारा हुआ.


---देवेंद्र गौतम 

हौसलों की सरजमीं पे....

हौसलों की सरजमीं पे इक महल सपनों का था.
पाओं दलदल में फंसे थे और सफ़र सदियों का था.


हमको जो बख्शी गयी वो सल्तनत फूलों की थी
और माथे पर जो आया ताज वो कांटों  का था.


मात जब होने को आई तब कहीं जाकर खुला
सारे प्यादे बेसबब थे खेल तो मोहरों का था.


मुझसे जो लिपटे हुए थे आस्तीं के सांप थे
सर पे जो मंडरा रहा था काफिला चीलों का था.


हमसे पहले भी यहां पे रस्म नजराने की थी
बात चाहे जब खुली हो सिलसिला सदियों का था.


---देवेंद्र गौतम