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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

हादिसा ऐसा.....

हादिसा ऐसा कि हर मौसम यहां खलने लगे.
बारिशों की बात निकले और दिल जलने लगे.

फितरतन मुश्किल था लेकिन जो हमें बख्शा गया
रफ्ता-रफ्ता हम उसी माहौल में ढलने लगे.

काश! ऐसा हो कलम की नोक बन जाये उफक
वक़्त का सूरज मेरी तहरीर में ढलने लगे.

अक्ल की उंगली पकड़ ले, दिल के आंगन से निकल
फिर कोई ख्वाहिश अगर घुटनों के बल चलने लगे.

दो घङ़ी मोहलत न दे ये गर्दिशे-शामो-सहर
राहरौ ठहरे अगर तो रहगुज़र चलने लगे.


----देवेंद्र गौतम