कैसे-कैसे ख्वाब इन आंखों में संजोते थे हम.
नींद जब गहरी न थी तो देर तक सोते थे हम.
बारहा मिलते थे लेकिन टूटकर मिलते न थे
कुछ कसक रहती थी दिल में जब जुदा होते थे हम.
भीड़ में रखते थे हम भी इक तबस्सुम जेरे-लब
लेकिन जब होते थे तन्हा आंख भिंगोते थे हम.
उन दिनों हम भी नशे में खुलते थे कहते हैं लोग
बात कुछ करते न थे जब होश में होते थे हम.
लम्हा-लम्हा मुस्कुरा के थाम लेता था हमें
वक़्त की बहती नदी में हाथ जब धोते थे हम.
----देवेंद्र गौतम
----देवेंद्र गौतम
बारहा मिलते थे लेकिन टूटकर मिलते न थे कुछ कसक रहती थी दिल में जब जुदा होते थे हम.
जवाब देंहटाएंवाह वाह...इस खूबसूरत गज़ल के लिए दिली दाद कबूल करें...
नीरज