समर्थक

रविवार, 2 अक्टूबर 2016

चुप लगा जाना अलग है, बेजु़बानी और है.

दास्तां उनकी अलग, मेरी कहानी और है
मैं तो दरिया हूं मेरे अंदर रवानी और है.
कौन समझेगा हमारी कैफ़ि‍यत अबके बरस
कह रही है कुछ ज़बां लेकिन कहानी और है.
वो अगर गूंगा नहीं होगा तो बोलेगा ज़रूर
चुप लगा जाना अलग है, बेजु़बानी और है.
आपने अबतक ज़मीं की तह में देखा ही नहीं
और बर्फ़ीली नदी है और पानी और है.
यूं तो कितनी ही रुतों को झेलते आए हैं हम
आज का मौसम मगर कुछ इम्तहानी और है.
एक खुशबू है कि जो बेचैन रखती है हमें
फूल सब अपनी जगह हैं रातरानी और है.
उसने हर इल्जाम अपने सर पे आखिर क्यों लिया
लोग कहते हैं कि अंदर की कहानी और है।
यूं तो बेपर की उड़ाने हम भी भरते हैं मगर
आज कुछ अपना इरादा आसमानी और है.
और क़ि‍स्सागो सुनाते हैं अलग अंदाज़ से
दास्ताने-ज़िंदगी मेरी ज़बानी और है।
देवेंद्र गौतम