कहां आवाज़ देनी थी, कहां दस्तक
लगा बैठे.
चिता को आग देने में हथेली ही
जला बैठे.
मिला मौका तो वो ज़न्नत को भी
दोज़ख बना बैठे.
जिन्हें सूरज उगाना था, दीया तक
को बुझा बैठे.
अलमदारों की बस्ती में लगी थी
हाट गैरत की
हमारे पास इक खोटा सा सिक्का
था, चला बैठे.
बदी फितरत में थी ताउम्र
बदकारों में शामिल थे
कभी नेकी अगर की भी तो दरिया
में बहा बैठे.
सलाहें मुफ्त में जो बांटते
फिरते हैं हम सबको
अमल करते कभी खुद पे तो देते
मश्विरा बैठे.
पुरानी अज़मतों का तज़किरा करते
रहे लेकिन
विरासत में मिली हर चीज मिट्टी
में मिला बैठे.-
-देवेंद्र गौतम