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मंगलवार, 3 मई 2011

पुरानी नस्लों से.......

सुर्ख और ज़र्द लम्हों की कश्मकश ने 
जब-जब 
तुम्हारे वजूद की ऊंची इमारत  को 
बेरब्त खंडरों में तब्दील किया 
और जब-जब
तुम्हारे चेहरे पर 
आड़ी-तिरछी रेखाओं की सल्तनत कायम हुई 
तुम हमारे करीब आये....

तुम हमारे करीब आये
और 
अपने कांपते हुए हाथों से 
एक बोसीदा सी गठरी 
हमारे कंधों पर रखकर 
मुतमईन हो गए....


तुमने कहा-
इसमें वो लालो-गुहर हैं 
जिनकी रौशनी 
अबतक हमारी रहनुमाई करती आई है 
अब....अब तुम्हारे काम आएगी....

सदियां गुज़र गयीं......
हम-तुम 
न जाने कितनी बार मिले 
और...न जाने कितनी बार हमने 
तुम्हारे हुक्म की तामील की.

लेकिन धीरे-धीरे....
तुम्हारे लालो-गुहर 
तुम्हारे हीरे-जवाहरात 
खुरदुरे पत्थरों की शक्ल अख्तियार करने लगे
और हर पत्थर पे सब्त होती गयी
गुलामी की एक लंबी सी दास्तां....
अब तो...
इस बोसीदा गठरी से 
बदबू भी आने लगी है.

इसीलिए इसबार हमने   
अपने हाथों में उठा ली है             
एक जलती हुई मशाल  
और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने 
अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ 
बगावत का नारा बुलंद किया है.

मुमकिन हो तो तुम भी 
पुरानी अजमतों के बोझ को  ताक पर रख दो 
और हमारी मशाल की रौशनी के लिए
अपना लहू दो......
अपना..... लहू..... दो....!

----देवेन्द्र गौतम 

16 टिप्‍पणियां:

  1. और जब-जब
    तुम्हारे चेहरे पर
    आड़ी-तिरछी रेखाओं की सल्तनत कायम हुई
    तुम हमारे करीब आये....
    *************
    इसीलिए इसबार हमने
    अपने हाथों में उठा ली है
    एक जलती हुई मशाल और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ
    बगावत का नारा बुलंद किया है.
    ***************

    बेहतरीन नज़्म !
    चरमराई हुई व्यवस्था और जनता की सहनशीलता के बाद उभर आया आक्रोश ,,,,,,,,
    ज़बरदस्त ख़ाका खींचा है आप ने
    इस सच्चे लेखन के लिए बधाई !

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  2. ati sundar or Sapast
    Dhanyawad apko ki apne mujhe yaad kiya

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  3. छटपटाहट को शब्दों में बखूबी सजाया है गौतम देवेन्द्र जी| सिर्फ़ बातों से कुछ नहीं होने वाला| कुछ करना होगा| और किसी न किसी को तो शुरू करना ही होगा........................बस यही तो समझना है.............यदि इसे नहीं तो उसे.........और यदि उसे भी नहीं तो उसे|
    बहुत ही क्रांतिकारी रचना है ये...............बधाई स्वीकार करें|

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  4. बहुत खूब ... कई बार दिल की बैचेनी ... व्यवस्था के प्रति क्षोभ आक्रोश भर देता है ... और कवि कमाल के माध्यम से उस गुस्से को व्यक्त कर देता है .... बहुत ही लाजवाब नज़्म है ...

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  5. Gussa sambhal kar rakhnay ki cheej hai... taki humay andar se badlay..

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  6. आक्रोश लिए प्रभावी नज़्म.

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  7. इसीलिए इसबार हमने
    अपने हाथों में उठा ली है
    एक जलती हुई मशाल और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ
    बगावत का नारा बुलंद किया है.

    सशक्‍त लेखन ... ।

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  8. आपकी नज़्म अच्छी है.पहले भी आपको पढ़ा है, टिप्पणियाँ भी पहले दे चुका हूँ.follower भी पहले से हूँ ही.उम्मीद करता हूँ ,ब्लॉग पर मुलाक़ात होती रहेगी.

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  9. मुमकिन हो तो तुम भी
    पुरानी अजमतों के बोझ को ताक पर रख दो
    और हमारी मशाल की रौशनी के लिए
    अपना लहू दो....
    क्या बात है देवेन्द्र जी. आज इन्हीं तेवरों की ज़रूरत है.

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  10. और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने
    अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ
    बगावत का नारा बुलंद किया है.
    ये करना ही पदना था --- सियासत को सबक सिखाने के लिये यही एक विकल्प है। अच्छी रचना के लिये बधाई।

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  11. अन्दर की बेचैनी और तड़प
    जब ओजपूर्ण शब्दों को स्वीकार कर लेती है
    तो इसी तरह की मशाल का जल उठना
    अपना महत्त्व परिभाषित करने लगता है ...
    अच्छा कथ्य है .

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  12. ज़िन्दा जज़्बात, जीवंत अभिव्यक्ति! यह तो रोज़ एक बार खोलने लायक ब्लाग है! बधाई!

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  13. ज़िन्दा जज़्बात, जीवंत अभिव्यक्ति! यह तो रोज़ एक बार खोलने लायक ब्लाग है! बधाई!

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  14. bahut hee khoob.
    bahut hee khoobsoorat alfaaz mein dhala hai aapne aajke sach ko,hamaare sach ko.
    shukriya.

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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