आंख पथरा गयी बिखर से गए.
हम अंधेरे में आज डर से गए.
हम हुए माईले-सफ़र जिस दिन
रास्ते सब के सब ठहर से गए.
हर तरफ धुंद है, खमोशी है,
काफिले क्या पता किधर से गए.
इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
घाव पिछले दिनों के भर से गए.
आंधियों की करिश्मासाज़ी से
हम परिंदे तो बाल-ओ-पर से गए.
फिर कलंदर-सिफत हुआ सबकुछ
खुदगरज लोग इस नगर से गए.
----देवेंद्र गौतम
----देवेंद्र गौतम
आदरणीय देवेन्द्र गौतम जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
नव वर्ष के प्रारम्भ में ही आपकी नई ग़ज़ल पढ़ कर आनन्दानुभूति हुई ।
इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
घाव पिछले दिनों के भर से गए
वाह ! वाऽऽह !!
पूरी ग़ज़ल काबिले-ता'रीफ़ है … मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं ।
सपरिवार आपके लिए
~*~ नव वर्ष २०११ मंगलमय हो ! ~*~
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
काफिले, क्या पता , किधर से गए ...
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आपने
कुछ ऐसे लोग ,,, कुछ ऐसी बातें ,,,,
जो गुज़रे दिनों का हिस्सा हो कर रह गईं है ....
सुकून ओ चैन ओ अम्न का सामान भी तो
किसी धुंद और ख़ामोशी की ओत में जा छिपे हैं
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है ... वाह !
और
इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
घाव पिछले दिनों के भर से गए.
ये शेर बहुत अच्छा-सा लगा ...
मुबारकबाद .
इक जरा सा ख़ुलूस पाया तो
जवाब देंहटाएंघाव पिछले दिनों के भर से गए.
बहुत उम्दा !नर्म दिली की पह्चान है ये
आँधियों की करिश्मासाज़ी से
हम परिंदे तो बाल-ओ-पर से गए.
वाह !हक़ीक़त बयानी की मिसाल