इक इमारत खुद बनायीं और खुद ढाई गयी.
फिर वही पिछले दिनों की भूल दुहराई गयी.
जाने कितनी बार इंसानी लहू डाला गया
आजतक लेकिन न अपने बीच की खाई गयी.
फिर तरक्की के नए औकात समझाए गए
फिर हवा के पाओं में ज़ंजीर पहनाई गयी.
जैसे दरिया में उठे कोई सुनामी की लहर
जिंदगी इस दौर में कुछ इस तरह आई गयी.
बस इसी तकरार में गुज़रा रफ़ाक़त का सफ़र
महफ़िलें उनकी उठीं न अपनी तन्हाई गयी.
-----देवेंद्र गौतम
फिर वही पिछले दिनों की भूल दुहराई गयी.
जाने कितनी बार इंसानी लहू डाला गया
आजतक लेकिन न अपने बीच की खाई गयी.
फिर तरक्की के नए औकात समझाए गए
फिर हवा के पाओं में ज़ंजीर पहनाई गयी.
जैसे दरिया में उठे कोई सुनामी की लहर
जिंदगी इस दौर में कुछ इस तरह आई गयी.
बस इसी तकरार में गुज़रा रफ़ाक़त का सफ़र
महफ़िलें उनकी उठीं न अपनी तन्हाई गयी.
-----देवेंद्र गौतम
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जवाब देंहटाएंइक इमारत खुद बनायीं और खुद ढाई गयी.
जवाब देंहटाएंफिर वही पिछले दिनों की भूल दुहराई गयी.
मतला....
पूरी ग़ज़ल का मक़सद बयाँ किये चाहता है
"फिर वही पिछले दिनों की..."
जवाब नहीं इन चंद अलफ़ाज़ का ... वाह
इंसानी लहू डाला गया
अपने बीच की खाई गयी....
आपका अलग-सा नज़रिया है,,,
ग़ज़ल की रवानी ही ग़ज़ल की खासियत बन पडी है ,,
और
महफ़िलें उनकी उठीं न अपनी तन्हाई गयी.
सुब्हानअल्लाह... !!
ख़लल
जवाब देंहटाएंके लिए मुआफ़ी की दरख्वास्त
भी साथ है
क़ुबूल फरमाएं
शेर अच्छा है.
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़ल.बधाई.
बहुत अच्छी ग़ज़ल है। सुंदर रचना के लिए साधुवाद! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
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