अजमते-अहले-जुनूं की पायेदारी के लिए!
एक हम ही रह गए तजलीलो-ख्वारी के लिए!
जाने कब आंधी उठे इन पत्थरों के शह्र में
शीशा-शीशा मुन्तज़र है संगबारी के लिए.
अब किसी खिड़की पे कोई चांद सा चेहरा नहीं
चिलचिलाती धूप है मंज़र-निगारी के लिए.
फिर मेरे अहसास के आंगन में वो नंगे हुए
जो कहा करते थे सबसे पर्दादारी के लिए.
जब कभी अपनी हदों को तोड़कर निकला हूं मैं
कुछ बहाने मिल गए हैं उस्तवारी के लिए.
एक चौराहे पे कबसे चुप खड़ी है ये सदी
एक लम्हे की तलब है बेकरारी के लिए.
आज फिर गौतम ख़ुशी के अब्र हैं छाये हुए
एक हम ही रह गए तजलीलो-ख्वारी के लिए!
जाने कब आंधी उठे इन पत्थरों के शह्र में
शीशा-शीशा मुन्तज़र है संगबारी के लिए.
अब किसी खिड़की पे कोई चांद सा चेहरा नहीं
चिलचिलाती धूप है मंज़र-निगारी के लिए.
फिर मेरे अहसास के आंगन में वो नंगे हुए
जो कहा करते थे सबसे पर्दादारी के लिए.
जब कभी अपनी हदों को तोड़कर निकला हूं मैं
कुछ बहाने मिल गए हैं उस्तवारी के लिए.
एक चौराहे पे कबसे चुप खड़ी है ये सदी
एक लम्हे की तलब है बेकरारी के लिए.
आज फिर गौतम ख़ुशी के अब्र हैं छाये हुए
और आंखें सर-ब-सर हैं अश्कबारी के लिए.
-----देवेंद्र गौतम
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है,गौतमजी.
जवाब देंहटाएंहर शेर पायेदार. हर शेर उस्तवार.
अब किसी खिड़की पे कोई चांद सा चेहरा नहीं
चिलचिलाती धूप है मंज़र-निगारी के लिए.
फिर मेरे अहसास के आंगन में वो नंगे हुए
जो कहा करते थे सबसे पर्दादारी के लिए
बहुत खूब.
सलाम.
अब किसी खिड़की पे कोई चांद सा चेहरा नहीं
जवाब देंहटाएंचिलचिलाती धूप है मंज़र-निगारी के लिए.
लाजवाब, सुन्दर लेखनी को आभार...