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शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया


मेरी आंखों के जीने से कोई दिल में उतर आया.
हजारों बार पलकें बंद कीं फिर भी नज़र आया.

मैं इक भटका मुसाफिर कब से दोराहे पर बैठा हूं
न कोई हमसफ़र आया न कोई राहबर आया.

धुआं बनकर हवा में गुम हुआ इक रोज़ वो ऐसा
कि फिर उसकी खबर आयी न वापस लौटकर आया.

अचानक रात को मैं चौंककर बिस्तर से उठ बैठा
न जाने ख्वाब कैसा था कि उसको देख थर्राया.

गए इक एक कर साहब के केबिन में सभी लेकिन
कोई हंसता हुआ निकला कोई अश्कों से तर आया.

किसी की क़ाबलियत का यहां हासिल न था कुछ भी
कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया.

उसे मालूम था कि ताक़ में होंगे कई दुश्मन
कई रस्ते बदलकर इसलिए वो अपने घर आया.

----देवेंद्र गौतम



9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब....
    हर रंग के शेर.....
    लाजवाब.

    सादर
    अनु

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  2. कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया....वाह! क्या बात कह दी आपने. आज के दौर में यही तो कामयाबी का मंत्र है. बहुत अच्छी ग़ज़ल है...बधाई!

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  3. बहुत खूब ग़ज़ल कही है भाई. आनंद आ गया.

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  4. ग़ज़ल कहने का फ़न है आपमें मालूम है मुझको.
    मुबारकबाद देने आज मैं इस ब्लॉग पर आया.

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  5. बहुत खूब भाई जी |
    बधाई इस उत्कृष्ट गजल की ||

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  6. मेरी आंखों के जीने से कोई दिल में उतर आया.
    हजारों बार पलकें बंद कीं फिर भी नज़र आया.

    मैं इक भटका मुसाफिर कब से दोराहे पर बैठा हूं
    न कोई हमसफ़र आया न कोई राहबर आया.
    वाह ... बेहतरीन

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  7. किसी की क़ाबलियत का यहां हासिल न था कुछ भी
    कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया.

    मौजूदा दौर की तल्ख़ सच्चाई तो यही है. बहुत अच्छी लगा ग़ज़ल. बधाई!

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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