मेरी आंखों के जीने से कोई दिल में उतर आया.
हजारों बार पलकें बंद कीं फिर भी नज़र आया.
मैं इक भटका मुसाफिर कब से दोराहे पर बैठा हूं
न कोई हमसफ़र आया न कोई राहबर आया.
धुआं बनकर हवा में गुम हुआ इक रोज़ वो ऐसा
कि फिर उसकी खबर आयी न वापस लौटकर आया.
अचानक रात को मैं चौंककर बिस्तर से उठ बैठा
न जाने ख्वाब कैसा था कि उसको देख थर्राया.
गए इक एक कर साहब के केबिन में सभी लेकिन
कोई हंसता हुआ निकला कोई अश्कों से तर आया.
किसी की क़ाबलियत का यहां हासिल न था कुछ भी
कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया.
उसे मालूम था कि ताक़ में होंगे कई दुश्मन
कई रस्ते बदलकर इसलिए वो अपने घर आया.
----देवेंद्र गौतम
बहुत खूब....
जवाब देंहटाएंहर रंग के शेर.....
लाजवाब.
सादर
अनु
कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया....वाह! क्या बात कह दी आपने. आज के दौर में यही तो कामयाबी का मंत्र है. बहुत अच्छी ग़ज़ल है...बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ग़ज़ल कही है भाई. आनंद आ गया.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल कहने का फ़न है आपमें मालूम है मुझको.
जवाब देंहटाएंमुबारकबाद देने आज मैं इस ब्लॉग पर आया.
बहुत खूब भाई जी |
जवाब देंहटाएंबधाई इस उत्कृष्ट गजल की ||
बढ़िया लगी ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंमेरी आंखों के जीने से कोई दिल में उतर आया.
जवाब देंहटाएंहजारों बार पलकें बंद कीं फिर भी नज़र आया.
मैं इक भटका मुसाफिर कब से दोराहे पर बैठा हूं
न कोई हमसफ़र आया न कोई राहबर आया.
वाह ... बेहतरीन
किसी की क़ाबलियत का यहां हासिल न था कुछ भी
जवाब देंहटाएंकई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया.
मौजूदा दौर की तल्ख़ सच्चाई तो यही है. बहुत अच्छी लगा ग़ज़ल. बधाई!
लगी
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