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रविवार, 27 जनवरी 2013

धीरे-धीरे कट रहा है हर नफ़स का तार क्यों

धीरे-धीरे कट रहा है हर नफ़स का तार क्यों.
जिंदगी से हम सभी हैं इस कदर बेजार क्यों.

हम खरीदारों पे आखिर ये नवाजिश किसलिए
घर के दरवाज़े तलक आने लगा बाज़ार क्यों.

दूध के अंदर किसी ने ज़ह्र तो डाला ही था
यक-ब-यक बच्चे भला पड़ने लगे बीमार क्यों.

धूप में तपती नहीं धरती जहां इक रोज भी
रात दिन बारिश वहां होती है मुसलाधार क्यों.

बात कुछ तो है यकीनन आप चाहे जो कहें
आज कुछ बदला हुआ है आपका व्यवहार क्यों.

पांव रखने को ज़मी कम पड़ रही है, सोचिये
यूं खिसकता जा रहा है आपका आधार क्यों.

---देवेंद्र गौतम


5 टिप्‍पणियां:

  1. कड़वी है हकीकत ...मगर मानना तो पड़ेगा ...सही अभिव्यक्ति

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  2. दूध के अंदर किसी ने ज़ह्र तो डाला ही था
    यक-ब-यक बच्चे भला पड़ने लगे बीमार क्यों.
    गौतम जी ... हर शेर सामयिक ... सोचने को मजबूर करता है ... लाजवाब अदायगी है ...

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  3. हम खरीदारों पे आखिर ये नवाजिश किसलिए
    घर के दरवाज़े तलक आने लगा बाज़ार क्यों.
    वैश्विक बाजारवाद की धमक आज महानगरों से होती हुए खेत के मेड़ तक पहुच चुकी है, सत्य को शब्द देती सार्थक रचना ,बहुत बड़ी सच्चाई से पर्दा उठा दिया आपने ,हर तथ्य के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष होते है उनसे अवगत कराने के लिए साधुवाद,

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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