तमाम उम्र अंधेरों ने जिसको पाला है.
उसी के नाम पे कायम अभी उजाला है.
छुपा के रखता है खुद को सफेद कपड़ों में
हमें पता है, वो अंदर से बहुत काला है.
हम अपने आप ही गिरते हैं और संभलते हैं
यहां किसी को किसी ने कहां संभाला है.
सब अपने-अपने हिसारों में कैद रहते हैं
तुम्हारे शह्र का दस्तूर ही निराला है.
कभी भी खुलके मगर बात क्यों नहीं होती
तेरी ज़बां पे, न मेरी ज़बां पे ताला है.
किसी को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता
अंधेरा है कि तिरे शह्र में उजाला है.
-देवेंद्र गौतम
वाह ... बहुत ही लाजवाब देवेंदे जी ... कमाल की बहर और गज़ल के शेर ...
जवाब देंहटाएंbahut badhiya likha hai..
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