और जीने की रज़ा चाहती है
ज़िंदगी मेरा बुरा चाहती है
आंधियों से न बचाये जायें
जिन चराग़ों को हवा चाहती है
सर झुकाये तो खड़ा है हर पेड़
और क्या बादे-सबा चाहती है
बंद कमरे की उमस किस दरजा
हर झरोखे की हवा चाहती है
मेरी तकलीफ़ बिछड़ कर मुझसे
मुझको पहले से सिवा चाहती है
--देवेंद्र गौतम
ज़िंदगी मेरा बुरा चाहती है
आंधियों से न बचाये जायें
जिन चराग़ों को हवा चाहती है
सर झुकाये तो खड़ा है हर पेड़
और क्या बादे-सबा चाहती है
बंद कमरे की उमस किस दरजा
हर झरोखे की हवा चाहती है
मेरी तकलीफ़ बिछड़ कर मुझसे
मुझको पहले से सिवा चाहती है
--देवेंद्र गौतम
बहुत ही लाजवाब शेर हैं देवेन्द्र जी ..मज़ा गया ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब ग़ज़ल है देवेन्द्र जी ...
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