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शनिवार, 23 मार्च 2024

क्या नदी वापस कभी आती है अपने ताल में?

कुछ नजाकत और बढ़ जाती है उसकी चाल में.

जब फंसी होती है चिड़िया इक शिकारी जाल में.

 

जा चुका है जो न लौटेगा किसी भी हाल में

क्या नदी वापस कभी आती है अपने ताल में?

 

जब मुकर्रर थी सज़ा सूली हमें चढ़ना ही था

फिर सफाई किसलिए देते किसी भी हाल में.

 

तितलियां, भौंरे, परिंदे, पेड़-पौधे और गुल

जाने क्या-क्या है फंसा इस बागवां के जाल में.

 

हाथ से निकली हुई खुशियां हमें वापस करे

ऐसा इक लम्हा बना होगा हजारों साल में.

 

इक शिकारी ने बिछा रखी थीं बारूदी सुरंगें

शेर को छुपना पड़ा था मेमने की खाल में.

 

वो किसी के हाथ का हथियार बन जाएं कहीं

इसलिए तो धार भी देते नहीं हैं ढाल में.

 

एक झोंके में तअल्लुक पेड़ से तोड़ा मगर

खुश्क पत्तों का भरोसा टिक रहा था डाल में.

शुक्रवार, 22 मार्च 2024

लाख मुखौटों के अंदर हो चेहरा दिख ही जाता है

 

थोड़ा छुप जाता है लेकिन थोड़ा दिख ही जाता है.

लाख मुखौटों के अंदर हो चेहरा दिख ही जाता है.

 

जितनी आजादी का दावा करना है, करते रहिए

सांसों पर भी लगा हुआ है पहरा, दिख ही जाता है.

 

हमको घास के हर तिनके में, लाख न चाहूं

हल्दीघाटी के अंदर का राणा दिख ही जाता है.

 

जिनकी आंखें गहराई में गोते खाती हैं उनको

रेत के अंदर नींद में डूबा दरिया दिख ही जाता है.

 

जाम पड़ा हो, चुप बैठा हो, तो शायद छुप भी जाए

पटरी-पटरी चलने वाला पहिया दिख ही जाता है.

 

सबकी आंखों पर चढ़ता है उनकी आंखों का जादू

वो दिखलाएं तो सहरा में दरिया दिख ही जाता है.