हौसलों की सरजमीं पे इक महल सपनों का था.
हमको जो बख्शी गयी वो सल्तनत फूलों की थी
और माथे पर जो आया ताज वो कांटों का था.
मात जब होने को आई तब कहीं जाकर खुला
सारे प्यादे बेसबब थे खेल तो मोहरों का था.
मुझसे जो लिपटे हुए थे आस्तीं के सांप थे
सर पे जो मंडरा रहा था काफिला चीलों का था.
हमसे पहले भी यहां पे रस्म नजराने की थी
बात चाहे जब खुली हो सिलसिला सदियों का था.
---देवेंद्र गौतम
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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब
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