उतर चुकें हैं सभी इस कदर जलालत पर.
कोई सलाख के पीछे कोई जमानत पर.
यहां किसी से उसूलों की बात मत करना
बिका हुआ है हरेक सख्स अपनी कीमत पर.
यकीन मानो कि सूरज पनाह मांगेगा
उतर गया कोई जर्रा अगर बगावत पर.
हुआ यही कि खुद अपना वजूद खो बैठा
वो जिसने दबदबा कायम किया था कुदरत पर.
अब तो इ-मेल पे होती है गुफ्तगू अपनी
उडाता क्यों है कबूतर कोई मेरी छत पर.
किया भरोसा तो खुद अपने बाजुओं पे किया
हरेक जंग लड़ी हमने अपनी ताक़त पर.
लगा हुआ है अभी दांव पर हमारा वजूद
कोई सलाख के पीछे कोई जमानत पर.
यहां किसी से उसूलों की बात मत करना
बिका हुआ है हरेक सख्स अपनी कीमत पर.
यकीन मानो कि सूरज पनाह मांगेगा
उतर गया कोई जर्रा अगर बगावत पर.
हुआ यही कि खुद अपना वजूद खो बैठा
वो जिसने दबदबा कायम किया था कुदरत पर.
अब तो इ-मेल पे होती है गुफ्तगू अपनी
उडाता क्यों है कबूतर कोई मेरी छत पर.
किया भरोसा तो खुद अपने बाजुओं पे किया
हरेक जंग लड़ी हमने अपनी ताक़त पर.
लगा हुआ है अभी दांव पर हमारा वजूद
ये जंग जीतनी होगी किसी भी कीमत पर.
----देवेन्द्र गौतम
----देवेन्द्र गौतम
नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंमैं २४वीं ग़ज़ल से यहां तक आई तब टिप्पणी लिखा दिखाई दिया ,
मैंने सारी ग़ज़लें पढ़ीं ,बहुत उम्दा लिखते हैं आप ,इस ग़ज़ल का
मतला तो अच्छा है ही ये शेर बहुत उम्दा है
यकीन मानो कि सूरज पनाह मांगेगा
उतर गया कोई जर्रा अगर बगावत पर।
हर ग़ज़ल में ही ऐसे अश’आर हैं कि बेसाख़ता वाह !निकल जाए
shukriya
जवाब देंहटाएंदेवेन्द्र जी आप ने टिप्पणी का प्रावधान नहीं रखा है जिस की वजह से अक्सर मन की बात मन में ही रह जाती है अगर शुरू कर दें तो अच्छा होगा,शुक्रिया
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