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मंगलवार, 2 मार्च 2010

महलों से बेहतर ....

महलों से बेहतर होते हैं.
फूस के घर भी घर होते हैं.


मीठे-मीठे काट के रख दें
ऐसे भी खंज़र होते हैं.


घर में दीवारें होती हैं
दीवारों में दर होते हैं.


जिनपर आंख नहीं टिक पातीं
कुछ ऐसे मंज़र होते हैं.


खुद पे जोर नहीं चलता तो
आपे से बाहर होते हैं.


हमको खुद हैरत होती है
शाम को जिस दिन घर होते हैं.


फूलों में भी चुभन होती है
कांटे भी दिलवर होते हैं.


खून की होली खेलने वाले
अपने लहू से तर होते हैं.


बातें जख्मी कर जाती हैं
लफ़्ज़ों में निश्तर होते हैं.


--देवेंद्र गौतम 

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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