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गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

वक़्त के औराक़ पे.....

वक़्त के औराक़ पे हर्फे-गुजिश्ता हो गया.
भूल जा मुझको कि मैं माजी का किस्सा हो गया.


मैं कि तितली की तरह लपका था फूलों की तरफ
और कांटों से उलझकर पर-शिकस्ता हो गया.


जिसपे सूरज की कोई आवाज़ पहुंची ही नहीं
मैं अंधेरों का वही सूना जज़ीरा हो गया.


एक दिन जलते हुए सूरज से आंखें लड़ गयीं
फिर मेरे चारो तरफ रौशन अंधेरा हो गया.


जाने किस टूटे हुए रिश्ते की याद आने लगी
जब कोई बारात निकली मैं फ़सुर्दा हो गया.


----देवेंद्र गौतम

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आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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