हर आइने में अबके अक्से-दिगर मिलेंगे.
ढूंढोगे आदमी को तो जानवर मिलेंगे.
बंज़र ज़मीं पे अबके सब्ज़ा दिखाई देगा
ज़रखेज़ जंगलों में सूखे शज़र मिलेंगे.
सूरज की रौशनी में खोये हुए मनाज़िर
रातों की तीरगी में फुटपाथ पर मिलेंगे.
जाओ किसी नगर में पक्के मकां तलाशो
इस गाँव में तो बाबू! मिटटी के घर मिलेंगे.
बेहतर है कुछ नकाबें चेहरे पे तुम भी रख लो
नज़रें बदल-बदलके अहले-नज़र मिलेंगे.
जो आज हंस रहे हैं गौतम की बात सुनकर
इक रोज देख लेना अश्कों से तर मिलेंगे.
----देवेंद्र गौतम
ढूंढोगे आदमी को तो जानवर मिलेंगे.
बंज़र ज़मीं पे अबके सब्ज़ा दिखाई देगा
ज़रखेज़ जंगलों में सूखे शज़र मिलेंगे.
सूरज की रौशनी में खोये हुए मनाज़िर
रातों की तीरगी में फुटपाथ पर मिलेंगे.
जाओ किसी नगर में पक्के मकां तलाशो
इस गाँव में तो बाबू! मिटटी के घर मिलेंगे.
बेहतर है कुछ नकाबें चेहरे पे तुम भी रख लो
नज़रें बदल-बदलके अहले-नज़र मिलेंगे.
जो आज हंस रहे हैं गौतम की बात सुनकर
इक रोज देख लेना अश्कों से तर मिलेंगे.
----देवेंद्र गौतम
बंज़र ज़मीं पे अबके सब्ज़ा दिखाई देगा
जवाब देंहटाएंज़रखेज़ जंगलों में सूखे शज़र मिलेंगे.
कंप्यूटर और तकनोलोजी की नज़र से तो
ऐसा ही जान पड़ता है...
सूरज की रौशनी में खोये हुए मनाज़िर
रातों की तीरगी में फुटपाथ पर मिलेंगे.
बेहतर है कुछ नकाबें चेहरे पे तुम भी रख लो
नज़रें बदल-बदलके अहले-नज़र मिलेंगे.
ये दो शेर
बहुत पसंद आये ....
शुक्रिया.... अच्छी ग़ज़ल के लिए !