हरेक लम्हा लहू में फसाद जारी था.
अजीब खौफ मेरे जिस्मो-जां पे तारी था.
तुम्हारी राह में हरसू सुकूं के साये थे
हमारी राह में सहरा-ए-बेकरारी था.
हवा में डूब के देखा तो ये खुला मुझपर
के तिश्नगी का सफ़र हर नफस में जारी था.
मेरी तकान पे कतरा के तुम निकल जाते
यही तो दोस्तों! अंदाज़े-शहसवारी था.
मैं ढाल बन गया खुद अपनी शीशगी के लिए
हरेक सम्त से ऐलाने-संगबारी था.
सजे हुए थे बहुत अजमतों के आईने
मेरी ज़बीं पे मगर अक्से-खाकसारी था,
बुझे हुए थे निगाहों के बाम-ओ-दर गौतम
हमारे दिल में मगर रंगे-ताबदारी था.
----देवेन्द्र गौतम
अजीब खौफ मेरे जिस्मो-जां पे तारी था.
तुम्हारी राह में हरसू सुकूं के साये थे
हमारी राह में सहरा-ए-बेकरारी था.
हवा में डूब के देखा तो ये खुला मुझपर
के तिश्नगी का सफ़र हर नफस में जारी था.
मेरी तकान पे कतरा के तुम निकल जाते
यही तो दोस्तों! अंदाज़े-शहसवारी था.
मैं ढाल बन गया खुद अपनी शीशगी के लिए
हरेक सम्त से ऐलाने-संगबारी था.
सजे हुए थे बहुत अजमतों के आईने
मेरी ज़बीं पे मगर अक्से-खाकसारी था,
बुझे हुए थे निगाहों के बाम-ओ-दर गौतम
हमारे दिल में मगर रंगे-ताबदारी था.
----देवेन्द्र गौतम
तुम्हारी राह में हरसू सुकूं के साये थे
जवाब देंहटाएंहमारी राह में सहरा-ए-बेकरारी था
क्या बात है गौतम जी !
बहुत ख़ूब !उम्दा शायरी का लुत्फ़ आता है
शुक्रिया!
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