अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
फिर घनी हो गयी जो रात थी ढलने वाली.
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
जिंदगी मोम की सूरत है पिघलने वाली.
फिर सिमट जाऊंगा ज़ुल्मत के घने कुहरे में
देख लूं, धूप किधर से है निकलने वाली.
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
एक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
----देवेंद्र गौतम
फिर सिमट जाऊंगा ज़ुल्मत के घने कुहरे में
जवाब देंहटाएंदेख लूं, धूप किधर से है निकलने वाली.
वाह !!!
अच्छी ग़ज़ल है बस आप की ग़ज़ल में ये passimistic approach खटक रहा है ,आप की ग़ज़लें तो प्रोत्साहित करती हैं
एक जुगनू है शब-ए-गम के सियहखाने में
जवाब देंहटाएंएक उम्मीद है आंखों में मचलने वाली.
ये शेर बढ़िया है.
सच है कि आशा की एक किरण के सहारे तो आदमी ज़िंदगी काट सकता है.
उम्दा शेर ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंभाई देवेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व अच्छी गजल लिखी है | हालात के अनुसार इंसान को चलने की मज़बूरी बयां करती है | आप ऐसे ही लिखते रहें, ताकि पाठकों को सुकून मिलता रहे और हालात से लड़ने कि ताकत मिलती रहे |
आपका भाई,
रवीन्द्र नाथ सिन्ह|
खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत खूब ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंकल 16/11/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है।
धन्यवाद!
बढ़िया गज़ल ....
जवाब देंहटाएंसादर...
सुन्दर रचना , परन्तु इस्मत भाई से सहमत हूँ की थोड़ी आशा भी दिखाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंसादर