बेबसी चारो तरफ फैली रही.
जिंदगी फिर भी सफ़र करती रही.
अब इसे खुलकर बिखरने दे जरा
रौशनी सदियों तलक सिमटी रही.
रात के अंतिम पहर पे देर तक
कौम और मज़हब के अंगारों तले
आदमीयत खाक में मिलती रही.
सर्द था पानी समंदर का मगर
तिश्नगी बेआबरू होती रही.
बंद आंखों में कई पैकर खुले
उसके चेहरे की झलक मिलती रही.
दोपहर की धूप से मैं क्या कहूँ
चार दिन की चांदनी कैसी रही.
देखकर गौतम निगाहों को मेरी
रौशनी जलती रही, बुझती रही.
----देवेंद्र गौतम
दोपहर की धूप से मैं क्या कहूँ
जवाब देंहटाएंचार दिन की चांदनी कैसी रही.
इतने दिनों के बाद अपने उसी तेवर के साथ आप की आमद बहुत ख़ुशगवार है
उम्दा ग़ज़ल !!
दो महीने से कहाँ गुम आप थे ?
जवाब देंहटाएंआपको बज़्मे-अदब तकती रही.
जवाब देंहटाएं♥
आदरणीय देवेंद्र गौतम जी
सस्नेहाभिवादन !
ख़ुशामदीद!
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल ले'कर लौटे हैं आप …
बेबसी चारो तरफ फैली रही
जिंदगी फिर भी सफ़र करती रही
अच्छा शे'र !
दोपहर की धूप से मैं क्या कहूँ
चार दिन की चांदनी कैसी रही
पूरी ग़ज़ल ही अच्छी है आपके नाम के अनुरूप ही
मुबारकबाद आपके लिए कोई अर्थ नहीं रखती , ख़ुद का मन रखने को कह रहा हूं :)
# विदा लेने से पहले एक शे'र मेरी तरफ़ से भी -
शायरे-आज़म कहां थे इतने दिन
याद हमको आपकी आती रही
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुंदर ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंबहन इस्मत जैदी जी, भाई कुंवर कुसुमेश जी, भाई राजेंद्र स्वर्णकार जी, भाई भूषण जी! जिंदगी की कुछ उलझनों, कुछ व्यक्तिगत समस्याओं ने मुझे दो महीने के वनवास पर भेज दिया था. अब उम्मीद है कि आपके बीच मौजूद रहूंगा. आपका प्रेम आपका स्नेह मुझे आपसे अलग नहीं होने देगा. ऐसा विश्वास है
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की तारीफ़ में
जवाब देंहटाएंजो भी कहूँ , कम रहेगा
हर शेर अपनी बात खुद कहलवा रहा है
बधाई स्वीकारें
खुश रहें .
अब इसे खुलकर बिखरने दे जरा
जवाब देंहटाएंरौशनी सदियों तलक सिमटी रही.
दोपहर की धूप से मैं क्या कहूँ
चार दिन की चांदनी कैसी रही.
वाह...वाह...वाह...लाजवाब ग़ज़ल...ढेरों दाद क़ुबूल करें
नीरज
बहुत खूब देवेन्द्र जी ... लंबी चुप्पी के बाद दुबारा आपको देख केर अच्छा लगा ... बहुत ही लाजवाब शरों से लदी है ये कमाल की गज़ल ... हर शेर नया पण लिए ...
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