वो खुला माहौल वो जीवन कहां
घर तो है घर में मगर आंगन कहां..
हर तअल्लुक एक जरूरत की कड़ी
आज कच्चे धागों का बंधन कहां.
मन के अन्दर विष भी है अमृत भी है
इस समंदर का मगर मंथन कहां.
हमने माना पेड़ लगवाए बहुत
नीम,बरगद, साल और चंदन कहां.
सोच का मर्कज़ कहीं दिखता नहीं
जाने अपना तन कहां है, मन कहां.
मौसमों के कह्र से राहत नहीं
जेठ है, बैसाख है, सावन कहां.
हर बरस पुतले जलाते रह गए
आजतक लेकिन जला रावण कहां.
----देवेंद्र गौतम
घर तो है घर में मगर आंगन कहां..
हर तअल्लुक एक जरूरत की कड़ी
आज कच्चे धागों का बंधन कहां.
मन के अन्दर विष भी है अमृत भी है
इस समंदर का मगर मंथन कहां.
हमने माना पेड़ लगवाए बहुत
नीम,बरगद, साल और चंदन कहां.
सोच का मर्कज़ कहीं दिखता नहीं
जाने अपना तन कहां है, मन कहां.
मौसमों के कह्र से राहत नहीं
जेठ है, बैसाख है, सावन कहां.
हर बरस पुतले जलाते रह गए
आजतक लेकिन जला रावण कहां.
----देवेंद्र गौतम