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बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

जाने अपना तन कहां है मन कहां

वो खुला माहौल वो जीवन कहां
घर तो है घर में मगर आंगन कहां..

हर तअल्लुक एक जरूरत की कड़ी
आज कच्चे धागों का बंधन कहां.

मन के अन्दर विष भी है अमृत भी है
इस समंदर का मगर मंथन कहां.

हमने माना पेड़ लगवाए बहुत
नीम,बरगद, साल और चंदन कहां.

सोच का मर्कज़ कहीं दिखता नहीं
जाने अपना तन कहां है, मन कहां.

मौसमों के कह्र से राहत नहीं
जेठ है, बैसाख है, सावन कहां.

हर बरस पुतले जलाते रह गए
आजतक लेकिन जला रावण कहां.

----देवेंद्र गौतम






शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया


मेरी आंखों के जीने से कोई दिल में उतर आया.
हजारों बार पलकें बंद कीं फिर भी नज़र आया.

मैं इक भटका मुसाफिर कब से दोराहे पर बैठा हूं
न कोई हमसफ़र आया न कोई राहबर आया.

धुआं बनकर हवा में गुम हुआ इक रोज़ वो ऐसा
कि फिर उसकी खबर आयी न वापस लौटकर आया.

अचानक रात को मैं चौंककर बिस्तर से उठ बैठा
न जाने ख्वाब कैसा था कि उसको देख थर्राया.

गए इक एक कर साहब के केबिन में सभी लेकिन
कोई हंसता हुआ निकला कोई अश्कों से तर आया.

किसी की क़ाबलियत का यहां हासिल न था कुछ भी
कई कंधे चढ़े तो कामयाबी का हुनर आया.

उसे मालूम था कि ताक़ में होंगे कई दुश्मन
कई रस्ते बदलकर इसलिए वो अपने घर आया.

----देवेंद्र गौतम