यूं तेरी यादों की कश्ती है रवां शाम के बाद.
जैसे वीरान जज़ीरे में धुआं शाम के बाद.
चंद लम्हे जो तेरे साथ गुजारे थे कभी
ढूंढ़ता हूं उन्हीं लम्हों के निशां शाम के बाद.
एक-एक करके हरेक जख्म उभर आता है
दिल के जज़्बात भी होते हैं जवां शाम के बाद.
कभी माज़ी कभी फर्दा की कसक उठती है
काटने लगता है अपना ही मकां शाम के बाद.
बारहा दिन में उभर आता है तारों का निजाम
बारहा सुब्ह का होता है गुमां शाम के बाद.
मेरे होठों पे बहरहाल खमोशी ही रही
लोग कहते हैं कि खुलती है ज़बां शाम के बाद.
----देवेंद्र गौतम
जैसे वीरान जज़ीरे में धुआं शाम के बाद.
चंद लम्हे जो तेरे साथ गुजारे थे कभी
ढूंढ़ता हूं उन्हीं लम्हों के निशां शाम के बाद.
एक-एक करके हरेक जख्म उभर आता है
दिल के जज़्बात भी होते हैं जवां शाम के बाद.
कभी माज़ी कभी फर्दा की कसक उठती है
काटने लगता है अपना ही मकां शाम के बाद.
बारहा दिन में उभर आता है तारों का निजाम
बारहा सुब्ह का होता है गुमां शाम के बाद.
मेरे होठों पे बहरहाल खमोशी ही रही
लोग कहते हैं कि खुलती है ज़बां शाम के बाद.
----देवेंद्र गौतम