उसे कहीं भी भटकने का डर नहीं होता.
वो जिसके साथ कोई राहबर नहीं होता.
हम इस जहां में फकत आदमी से डरते हैं
किसी खुदा का हमें कोई डर नहीं होता.
न जाने कौन सी मिट्टी के बने होते हैं
किसी की बात का जिनपे असर नहीं होता
हरेक शख्स में इंसानियत नहीं होती
हरेक शख्स मगर जानवर नहीं होता.
वहां किसी पे भरोसा भी हो तो कैसे हो
खुद अपना साया जहां मोतबर नहीं होता.
न जाने कैसे दुआयें कुबूल होती हैं
मेरी दुआ का जरा भी असर नहीं होता.
कहीं पे कुछ तो हुआ है जो ऐसा आलम है
इतना वीरान तो कोई नगर नहीं होता.
----देवेंद्र गौतम
वो जिसके साथ कोई राहबर नहीं होता.
हम इस जहां में फकत आदमी से डरते हैं
किसी खुदा का हमें कोई डर नहीं होता.
न जाने कौन सी मिट्टी के बने होते हैं
किसी की बात का जिनपे असर नहीं होता
हरेक शख्स मगर जानवर नहीं होता.
वहां किसी पे भरोसा भी हो तो कैसे हो
खुद अपना साया जहां मोतबर नहीं होता.
न जाने कैसे दुआयें कुबूल होती हैं
मेरी दुआ का जरा भी असर नहीं होता.
कहीं पे कुछ तो हुआ है जो ऐसा आलम है
इतना वीरान तो कोई नगर नहीं होता.
----देवेंद्र गौतम
दुआ-गो भी पलट के तकाज़ा करते हैं..,
जवाब देंहटाएंतेरी मुश्त ने दर्दमंदों को कितना बख्शा.....
हरेक शख्स में इंसानियत नहीं होती
जवाब देंहटाएंहरेक शख्स मगर जानवर नहीं होता.
...वाह! बहुत उम्दा ग़ज़ल...
हम इस जहां में फकत आदमी से डरते हैं
जवाब देंहटाएंकिसी खुदा का हमें कोई डर नहीं होता.
एक लाजवाब गज़ल का उम्दा शेर ... बही ही मज़ा आया गज़ल का ...
waaaaaaaaaaah
जवाब देंहटाएंbhot khub
aap bhi hmare blog pr njar jurur dalenge
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अच्छी अच्छी ग़ज़लें कहना गौतम है आसान बहुत
जवाब देंहटाएंलेकिन गौतम ही जाने कैसे कह लेता है ये सब
रमेश कँवल