उलझनों
की धुंद सबके ज़ेहन में फैली हुई सी.
वक़्त की गहराइयों
में ज़िंदगी उतरी हुई सी.
हर कोई अपनी हवस की
आग में जलता हुआ सा
और कुछ इंसानियत की
रूह भी भटकी हुई सी.
आपकी यादें फज़ा में
यूं हरारत भर रही हैं
धूप जैसे चांदनी
रातों में हो घुलती हुई सी.
बर्फ से जमते हुए
माहौल के अंदर कहीं पर
एक चिनगारी भड़कने
के लिए रखी हुई सी.
रोजो-शब के पेंचो-खम
का ये करिश्मा भी अजब है
हम वही, तुम भी वही,
दुनिया मगर बदली हुई सी.
चार-सू तारीक़
लम्हों का अजब सैले-रवां है
रौशनी जिसमें की
सदियों से है सिमटी हुई सी.
जा-ब-जा वहमो-गुमां
के तुंद झोंके मौज़ेजन से
और अब अपने यकीं की
नींव भी हिलती हुई सी.
फिर ख़यालों की
बरहना शाख पे पत्ते उगे हैं
फिर मेरे दिल में है
इक नन्हीं कली खिलती हुई सी.
-देवेंद्र गौतम
वाह ... बर्फ के माहों में चिंगारी सी रखी हुयी ...
जवाब देंहटाएंबहुर ही लाजवाब शेर है ... जबरदस्त ग़ज़ल ...