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बुधवार, 29 जून 2016

उम्रभर की यही कमाई है.

हर घड़ी ग़म से आशनाई है.
ज़िंदगी फिर भी रास आई है.

आस्मां तक पहुंच नहीं लेकिन
कुछ सितारों से आशनाई है.

अपने दुख-दर्द बांटता कैसे
उम्रभर की यही कमाई है.

ख्वाब में भी नज़र नहीं आता
नींद जिसने मेरी चुराई है.

अब बुझाने भी वही आएगा
आग जिस शख्स ने लगाई है.

काफिले सब भटक रहे हैं अब
रहनुमाओं की रहनुमाई है.

झूठ बोला है जब कभी मैंने
मेरी आवाज़ लड़खड़ाई है

कोई बंदा समझ नहीं पाया
क्या ख़ुदा और क्या खुदाई है.

-देवेंद्र गौतम

शुक्रवार, 10 जून 2016

हम कहां हैं, हमें पता तो चले.

और कुछ दूर काफिला तो चले.
हम कहां हैं, हमें पता तो चले.

हमसफर की तलब नहीं हमको
साथ कदमों के रास्ता तो चले.

बंद कमरे में दम निकलता है
इक जरा सांस भर हवा तो चले.

हर हकीक़त बयान कर देंगे
आज बातों का सिलसिला तो चले.

अपनी मर्जी के सभी मालिक हैं
कोई कानून-कायदा तो चले.

वो अकेले कहां-कहां जाते
साथ लेकर कोई चला तो चले.