मौसमों की किस कदर
हमपर नवाज़िश हो रही है.
रोज आंधी आ रही है,
रोज बारिश हो रही है.
रात-दिन सपने दिखाए जा रहे हैं हम सभी को
बैठे-बैठे आस्मां
छूने की कोशिश हो रही है.
शक के घेरे में
पड़ोसी भी है लेकिन दरहक़ीकत
घर के अंदर घर जला
देने की साज़िश हो रही है.
जंगलों में आजकल
इनसान देखे जा रहे हैं
और शहरों में
दरिंदों की रहाइश हो रही है.
अब यहां कुदरत की
खुश्बू की कोई कीमत नहीं है
हर तरफ कागज के फूलो
की नुमाइश हो रही है.
वाह ... बहु ही लाजवाब शेर देवेन्द्र जी ... खूबसूरत ग़ज़ल ...
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