समर्थक

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

अहमकों को हाथ में तक़दीर दे बैठे हैं हम




-देवेंद्र गौतम

अपनी बर्बादी की हर तहरीर दे बैठे हैं हम.
अहमकों के हाथ में तक़दीर दे बैठे हैं हम.

अपने बाजू काटकर उसके हवाले कर चुके
जितने तरकश में पड़े थे तीर दे बैठे हैं हम.

हाथ में माचिस की तीली, आंख में चिनगारियां
इक सुलगते शहर की तसवीर दे बैठे हैं हम.

क्या पता था चैन से सोने नहीं देगा कभी
जाने किस-किस ख्वाब की ताबीर दे बैठे हैं हम

एक-एक करके जकड़ लेंगी हमारी ख्वाहिशें
अपने-अपने नाम की जंजीर दे बैठे हैं हम.

अब तो अपनी गर्दनों की फिक्र करनी है हमें
कातिलों के हाथ में शमशीर दे बैठे हैं हम.

कुछ बचा रखा है हमने खुश्क मौसम के लिए
वो समझता है कि सब जागीर दे बैठे हैं हम.

1 टिप्पणी:

कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

अच्छी-बुरी जो भी हो...प्रतिक्रिया अवश्य दें