सभी की बात सुनती
हो, वही सरकार होती है.
हुकूमत में लचीलेपन
की भी दरकार होती है.
सियासत के लिए
बर्बाद कर देते हो क्यों आखिर
बड़ी मुश्किल से कोई
नस्ल जो तैयार होती है.
खुली आंखों से जो
तसवीर दिखती है निगाहों को
वही तो बंद आंखों
में कहीं साकार होती है.
हवेली दर हवेली राख का
छिड़काव कर जाए
वो चिनगारी सही माने
में तब अंगार होती है.
हवा सबके घरों की
दास्तां कहती है लोगों से
मगर अपनी हक़ीकत से
कहां दो चार होती है.
कई सपने हमारी नींद
को झकझोर जाते हैं
हमारी आंख मुश्किल
से मगर बेदार होती है
-देवेंद्र गौतम
👌👌वाह! बहुत ही बेहतरीन 👌👌👌
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा! क्या यह ग़ज़ल जखीरा पर प्रकाशित कर सकते है?
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