किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़.. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़.
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शनिवार, 19 नवंबर 2011
अपनी-अपनी जिद पे अड़े थे
अपनी-अपनी जिद पे अड़े थे.
इसीलिए हम-मिल न सके थे.
एक अजायब घर था, जिसमें
कुछ अंधे थे, कुछ बहरे थे.
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बुधवार, 9 नवंबर 2011
अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
अब नहीं सूरते-हालात बदलने वाली.
फिर घनी हो गयी जो रात थी ढलने वाली.
अपने अहसास को शोलों से बचाते क्यों हो
कागज़ी वक़्त की हर चीज है जलने वाली .
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शनिवार, 5 नवंबर 2011
बेबसी चारो तरफ फैली रही
बेबसी चारो तरफ फैली रही.
जिंदगी फिर भी सफ़र करती रही.
अब इसे खुलकर बिखरने दे जरा
रौशनी सदियों तलक सिमटी रही.
रात के अंतिम पहर पे देर तक
सुब्ह की पहली किरन हंसती रही.
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