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गुरुवार, 8 मार्च 2012

सिलसिले इस पार से उस पार थे

सिलसिले इस पार से उस पार थे.
हम नदी थे या नदी की धार थे?

क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
हम सभी ढहती हुई दीवार थे.

उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
मेरे अंदर भी कई किरदार थे.

मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
मेरे जैसे और भी दो-चार थे.

खौफ दरिया का न तूफानों का था
नाव के अंदर कई पतवार थे.

तुम इबारत थे पुराने दौर के
हम बदलते वक़्त के अखबार थे.

-----देवेंद्र गौतम

 



13 टिप्‍पणियां:

  1. सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं.....

    क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
    हम सभी ढहती हुई दीवार थे.

    उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
    मेरे अंदर भी कई किरदार थे.

    मैं अकेला तो नहीं था शह्र में
    मेरे जैसे और भी दो-चार थे.

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  2. बहुत अच्छी ग़ज़ल देवेन्द्र जी !
    तमाम अशआर पसंद आये .....बधाई !

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  3. बहुत मुश्किल मे है गजल -
    देवेंद्र जी, मैं आह-वाह नहीं कर सकता। बहुत छोटा हूं, इसलिए शाबाशी तो हरगिज नहीं। बस कहूं कि बहुत मजबूर कर दिया आपने कुछ बोलने को।
    देवेंद्र जी को पढ़नेवालों के दरवाजे पर गालिब की यह पंक्ति (पूरा शेर नहीं) अपना सिर पटक रही होगी – ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’ भाव के परिपाक के लिए अनुभूति का तीव्रतम क्षणों से गुजरना बेहद जरूरी होता है, जैसे फल के स्वादिष्ट होने के लिए उसका पकना। आपके मजबूत अशआर को देखकर तो यही लगता है कि आपने कितना वक्त दिया है, धीरज दिया है इसे संवारने मे। आपके धैर्यपूर्ण रचनात्मक वैभव इसे साबित करने के लिए काफी है कि रचनात्मकता अपना व्याकरण और विमर्श खुद ही गढ़ती है। यहां मियां गालिब का अगला पुछल्ला धरा का धरा रह जाता है जब वे आगे कहते हैं - ‘कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक’। देवेंद्र जी जब आप कहते हैं कि ‘उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत/ मेरे अंदर भी कई किरदार थे.’ तो समय का यह अंतर्विरोध किसके भीतर नहीं फनफनाता होगा, कौन होगा जिसे भीतर तक यह पंक्ति नहीं मथ डालेगी। आपकी गजल मुकम्मल तौर पर जो परिदृश्य तैयार करती है बहुधा वह एक बड़ी प्रश्नाकुलता पैदा करती है। ‘क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते, हम सभी ढहती हुई दीवार थे.’ देशकाल को छूकर नहीं गुजरते आप, पूरी तरह दस्तक देते हैं, खटखटाते हैं। दहलाते हैं भीतर तक। सवालों के हथौड़े से।
    मैं यह आपसे नहीं कह रहा हूं, कह भी नहीं सकता। आपकी गजल और नज्म का लुत्फ उठानेवालों से कहना है। भाइयो, आपको फिरंगी Wordsworth की बात याद आ रही है कि नहीं – poetry is the spontaneous overflow of powerful feeling which recollect in tranquility अब इससे बड़ी मिसाल क्या होगी ‘एकाकी क्षणों मे संचित भावों की स्वतःस्फूर्त प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति’ की। जो ताकत, वजन और मिजाज हैं शेर के, वह दौर का तेवर है। लेकिन देवेंद्र जी आप एक गुनाह कर रहे हैं अपनी रचनाओं को बड़े फलक पर आने से रोककर। ‘तुम इबारत थे पुराने दौर के/ हम बदलते वक़्त के अखबार थे.’ - कहने से काम नहीं चलेगा।
    ऐसी गजलों का बाहर आना बेहद जरूरी है। भारत मे वर्चुअल स्पेस की अपनी सीमा है। उससे बहुत अपेक्षा रखकर खुद को क्षुब्ध करेंगे। गजल की मुकम्मल तसवीर ऐसी गजलों के बगैर नहीं बनेगी। ‘बाहर’ से मेरा आशय मुख्यधारा की साहीत्यिक-वैचारिक मिजाज की गंभीर पत्रिकाओं से है। हम वहां आपकी गजल नहीं पढ़ पा रहे हैं, बाहर कहीं नहीं सुन पा रहे हैं तो कहीं न कहीं आपकी उदासीनता का भी इसमें हाथ है। साहित्य से थोड़ा भी आपका वास्ता है तो देशकाल को देखते हुए आप अपने फर्ज नहीं निभा रहे हैं। आत्महनन के रास्ता पर चलने का आप जोखिम उठा रहे हैं। इसलिए एक चुनौती भी दे रहे हैं समकालीन गजल पर सोचनेवाले-विचारनेवालों के लिए। भाइयो सिर्फ वाहवाही से काम नहीं चलनेवाला। या तो हम मिलकर कुछ करें या फिर बहिष्कार करें गजलगंगा का।
    एक पाकिस्तानी शायर की तरह सोचना होगा जिन्होंने बजा फरमाया है- ‘करोड़ों क्यों नहीं लड़ते फिलिस्तीं के लिए मिलकर/ दुआओं से नहीं कटती फकत जंजीर मौलाना।‘ तो यहां सभी मौलानों की मिली-जुली जिम्मेवारी कुछ न कुछ बनती है। अन्यथा गजल की बेहतर तस्वीर से इस काव्य वैभव को बाहर रखने के जिम्मेवार हम भी होंगे।

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  4. भाई उमा जी!
    मैंने अपनी ग़ज़ल के अशआर के जरिये जितने सवाल उठाये हैं उससे ज्यादा सवाल आपने अपने कोमेंट के जरिये उठा दिए हैं. भाई! पत्र पत्रिकाओं में ग़ज़लें भेजने और छपने-छपाने पर 1980 के ज़माने तक ध्यान था. लम्बे समय तक चुप्पी के बाद जब दुबारा मैदान में उतरा तो उस ज़माने के श्रोता नामचीन शायर बन चुके थे. ऐसे में उस भीड़ में शामिल होना मुनासिब नहीं समझा. अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर देना ही उचित समझा. साहित्यिक दुनिया की खेमेबाजी में कौन अपना वक़्त जाया करे. आपको पता होगा एक बार नबाब आसिफुद्दौला अपने महल में तालाब के किनारे बैठे पानी में कंकड़ फेंक रहे थे. उस ज़माने में गजलों के बादशाह मीर तकी मीर उनके वजीफादार शायर थे. उन्होंने मीर तकी मीर को तलब किया और कुछ सुनाने को कहा. मीर शेर पढने लगे. बादशाह कंकड़ फेंकते रहे. मीर को गुस्सा आया. उन्होंने कहा-हुज़ूर मैं अपना लख्ते-जिगर पेश कर रहा हूँ और आप कंकड़ियों से खेल रहे हैं? नबाब ने जवाब दिया-आप पढ़ते जाइये मीर साहब! जिस शेर में कशिश होगी खुद ब खुद खींच लेगा. हालांकि मीर साहब ने नाराज होकर अपनी ग़ज़ल फाड़ दी और वजीफा वापस कर चल दिए. लेकिन नवाब साहब ने जो बात कही थी वह बहुत माकूल थी. अगर शेरों में जान होगी तो वह साहित्यिक दुनिया का ध्यान खींच लेंगे और अगर बेजान होंगे तो उनपर किसी का ध्यान नहीं जायेगा चाहे कितनी भी बड़ी पत्रिका में कितनी भी प्रमुखता से छपे हों. अपने एक शेर के साथ बात ख़त्म करना चाहुंगा-

    हर वरक पर भीड़ थी, कोहराम था.
    हाशिये में चैन था आराम था.

    वैसे कोई मित्र संपादक ग़ज़लें मांगता है तो इनकार नहीं करता. गज़लगंगा में शामिल गजलों के मेरे नाम के साथ उपयोग पर कोई रोक नहीं है. व्यावसायिक उपयोग की सूरत में जरूर कुछ सहयोग की उम्मीद करूंगा. कुछ गलत कह गया होऊं तो क्षमा करेंगे. बेशकीमती सुझाव देते रहेंगे.

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  5. बड़े भाई,
    आपकी बात सही है, पर सही परिप्रेक्ष्य नहीं है। संतत्व का भाव तो अब अध्यात्म के क्षेत्र के लिए भी मुनासिब नहीं रहा। साहित्य में संत भाव लेकर आएंगे तो वह त्रासद परिणाम ही देगा। उखाड़-पछाड़ मे लगी दुनिया का कोई भी भाग नहीं बचा जहां सिर्फ प्रतिभा से अपनी जगह बनाई जा सके। रचनाओं से माहौल बनने की जो बात कही है आपने, आपको भी पता होगा कि सबकुछ प्रायोजित-पूर्वनियोजिति होता है। हमे अपनी चीजों की मार्केटिंग सीखनी होगी। इस दौर मे इसी प्रोफेशनल स्किल की अपेक्षा है।

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  6. खौफ दरिया का न तूफानों का था
    नाव के अंदर कई पतवार थे.
    sundar bhav

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  7. तुम इबारत थे पुराने दौर के
    हम बदलते वक़्त के अखबार थे.

    वाह ...वाह.....
    ये मिसरा सबसे बढिया लगा .....

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  8. क्या हवेली की बुलंदी ढूंढ़ते
    हम सभी ढहती हुई दीवार थे.

    उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
    मेरे अंदर भी कई किरदार थे.

    बहुत उम्दा शायरी से रूशनास करवाया है इस ग़ज़ल में आप ने
    ख़ास तौर पर ये दो अश’आर बेहद ख़ूबसूरत हैं

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  9. और कुछ तो पता नहीं...मगर हम गुनगुना उठे...बाकी ज्ञानियों के ज्ञान पर क्या लगाम!!

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  10. एक मुज्जस्सिम ग़ज़ल ..बहुत दिनों के बाद शाइरी की रुकी हुई सुई की टिक-टिक सुनाई दी .मन मिजाज ताज़ा हो गया ..भाई गौतम जी आपकी लम्बी लम्बी चुप्पी कहीं से भी जायज नहीं ठहराइ जा सकती.

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  11. उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
    मेरे अंदर भी कई किरदार थे...

    बहुत खूब देवेन्द्र जी ... कई दिनों बाद दुबारा आपको पढ़ना हुवा ... सुभान अल्ला ... गज़ब का शेर है ये इस लाजवाब गज़ल का ...

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  12. उसके चेहरे पर मुखौटे थे बहुत
    मेरे अंदर भी कई किरदार थे
    बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है.. हर शेर शानदार।

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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