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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था

जाने किस उम्मीद के दर पे खड़ा था.
बंद दरवाज़े को दस्तक दे रहा था.

कोई मंजिल थी, न कोई रास्ता था
उम्र भर  यूं ही   भटकता फिर रहा था.

वो सितारों का चलन बतला रहे थे
मैं हथेली की लकीरों से खफा था.



मेरे अंदर एक सुनामी उठ रही थी
फिर ज़मीं की तह में कोई ज़लज़ला था.

इसलिए मैं लौटकर वापस न आया
अब न आना इस तरफ, उसने कहा था.

और किसकी ओर मैं उंगली उठाता
मेरा साया ही मेरे पीछे पड़ा था.

हमने देखा था उसे सूली पे चढ़ते
झूठ की नगरी में जो सच बोलता था.

उम्रभर जिसके लिए तड़पा हूं गौतम
दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था.

----देवेंद्र गौतम



11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह..........
    बहुत खूबसूरत गज़ल..
    वो सितारों का चलन बतला रहे थे
    मैं हथेली की लकीरों से खफा था.

    लाजवाब!!!

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  2. और किसकी ओर मैं उंगली उठाता
    मेरा साया ही मेरे पीछे पड़ा था.

    Bahut Umda...

    जवाब देंहटाएं
  3. वो सितारों का चलन बतला रहे थे
    मैं हथेली की लकीरों से खफा था.

    बहुत खूबसूरत गजल

    जवाब देंहटाएं
  4. वो सितारों का चलन बतला रहे थे
    मैं हथेली की लकीरों से खफा था.

    achchha sher hai.

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  5. दो घडी पहलू में आ जाता तो क्या था ...

    बहुत खूब गौतम जी ... सभी शेर कमाल के लगे ... बहुत खास दिल में उतर जाते हैं ....

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बेहतरीन....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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  7. बहुत खूब, कमाल का लिखते हैं ।

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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