मुखालिफ हवाओं को हमवार कर दे.
भवंर में फंसा हूं मुझे पार कर दे.
जिसे जिंदगी ने कहीं का न छोड़ा
कई बार लौटा हूं उसकी गली से
कहीं मुझसे मिलने से इनकार कर दे!
कभी दोस्ती की रवायत निभाए
कभी वो पलटकर पलटवार कर दे.
कोई मेरी छत के करे चार टुकड़े
कोई मेरे आंगन में दीवार कर दे.
मैं क्या उसको समझूं, मैं क्या उसको जानूं
मेरा हक भी जो मुझको थक-हार कर दे.
वो है या नहीं है, नहीं है कि है
यही सोच मुझको न बीमार कर दे.
----देवेंद्र गौतम
Waah... Badhia Gazal hai!!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन....
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंकई बार लौटा हूं उसकी गली से
जवाब देंहटाएंकहीं मुझसे मिलने से इनकार कर दे!
ऐसे में ऐसा ही होता है
कोई मेरी छत के करे चार टुकड़े
जवाब देंहटाएंकोई मेरे आंगन में दीवार कर दे.
bahut khoob !! umda ghazal !!
अनुपम भाव संयोजन से सजी उम्दा गजल
जवाब देंहटाएंगौतमजी,
जवाब देंहटाएंआपकी गजल का कोई जवाब नहीं आप बेमिसाल हैं
कई बार लौटा हूं उसकी गली से
जवाब देंहटाएंकहीं मुझसे मिलने से इनकार कर दे!
बहुत खूब ... लाजवाब शेर है देवेन्द्र जी इस गज़ल का ... ये हसीनों की आदत है ...
har sher lajwaaab pahli baar aapke bpog par aai hun aur sach bahut hi achha laga
जवाब देंहटाएंbehtreen gajale liye
bahut bahut badhai
poonam
वाह ... बहुत खूब कहा है आपने ...
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