उबाल खाते हैं फिर बर्फ सा जम जाते हैं.
ये लोग जंगे-मुसलसल कहां चलाते हैं.
हम इंकलाब के नारे बहुत लगाते हैं.
फिर अपने-अपने घरौंदे में लौट आते हैं.
किसी के सामने खुलकर कभी नहीं आते
वो दूर बैठ के कठपुतलियां नचाते हैं.
किसी की शक्ल को पहचानता नहीं कोई
तमाम लोग नक़ाबों में पाये जाते हैं.
अजीब रंग के खा़ना-बदोश हैं हम भी
जहां जगह मिली चादर वहीं बिछाते हैं.
अंधेरे घर पे किसी की नजर नहीं जाती
सब आफताब के आगे दीया जलाते हैं.
नज़र-नवाज़ नजारे नज़र नहीं आते
हमारी आंख के परदे भी झिलमिलाते हैं.
---देवेंद्र गौतम
ये लोग जंगे-मुसलसल कहां चलाते हैं.
हम इंकलाब के नारे बहुत लगाते हैं.
फिर अपने-अपने घरौंदे में लौट आते हैं.
किसी के सामने खुलकर कभी नहीं आते
वो दूर बैठ के कठपुतलियां नचाते हैं.
किसी की शक्ल को पहचानता नहीं कोई
तमाम लोग नक़ाबों में पाये जाते हैं.
अजीब रंग के खा़ना-बदोश हैं हम भी
जहां जगह मिली चादर वहीं बिछाते हैं.
अंधेरे घर पे किसी की नजर नहीं जाती
सब आफताब के आगे दीया जलाते हैं.
नज़र-नवाज़ नजारे नज़र नहीं आते
हमारी आंख के परदे भी झिलमिलाते हैं.
---देवेंद्र गौतम
अंधेरे घर पे किसी की नजर नहीं जाती
जवाब देंहटाएंसब आफताब के आगे दीया जलाते हैं.
waah! bahut khoob ....!!
किसी के सामने खुलकर कभी नहीं आते
जवाब देंहटाएंवो दूर बैठ के कठपुतलियां नचाते हैं.
yahi to hai karporet gharanon kee ranniti...amreeki dadagiri
अंधेरे घर पे किसी की नजर नहीं जाती
जवाब देंहटाएंसब आफताब के आगे दीया जलाते हैं ....
वाह ... बहुत ही लाजवाब शेर है ...
कमाल की गज़ल है ...
waaaaaaaaah bhot khub, waaaah
जवाब देंहटाएंbahut achchha likha hai..
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