मन की गहराई का अंदाजा न था.
डूबकर रह जायेंगे, सोचा न था.
कितने दरवाज़े थे, कितनी खिड़कियां
आपने घर ही मेरा देखा न था
एक दुल्हन की तरह थी ज़िन्दगी
गोद में उसके मगर बच्चा न था.
इक कटीली झाड़ थी चारों तरफ
बस ग़नीमत है कि मैं उलझा न था.
बारहा मुझको तपाता था बहुत
एक सूरज जो कभी निकला न था.
पेड़ का हिस्सा था मैं भी दोस्तो
मैं कोई टूटा हुआ पत्ता न था.
दूसरों के दाग़ दिखलाता था जो
उसका दामन भी बहुत उजला न था.
-देवेंद्र गौतम