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बुधवार, 22 जुलाई 2015

मन की गहराई का अंदाजा न था.

मन की गहराई का अंदाजा न था.
डूबकर रह जायेंगे, सोचा न था.

कितने दरवाज़े थे, कितनी खिड़कियां
आपने घर ही मेरा देखा न था                                                    

एक दुल्हन की तरह थी ज़िन्दगी
गोद में उसके मगर बच्चा न था.                                                            

इक कटीली झाड़ थी चारों तरफ
बस ग़नीमत है कि मैं उलझा न था.

बारहा मुझको तपाता था बहुत
एक सूरज जो कभी निकला न था.

पेड़ का हिस्सा था मैं भी दोस्तो
मैं कोई टूटा हुआ पत्ता न था.

दूसरों के दाग़ दिखलाता था जो
उसका दामन भी बहुत उजला न था.

-देवेंद्र गौतम

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

आप परछाईं से लड़ते ही नहीं.

मसअ़ले अपने सुलझते ही नहीं.
पेंच इतने हैं कि खुलते ही नहीं.

हम कसीदे पर कसीदे पढ़ रहे हैं
आप पत्थर हैं पिघलते ही नहीं.

लोग आंखों की जबां पढ़ने लगे हैं
कोई बहकाये बहकते ही नहीं.

बात कड़वी है, मगर सच है यही
जो गरजते हैं, बरसते ही नहीं.

चार अक्षर पढ़ के आलिम हो गये
पांचवा अक्षर समझते ही नहीं.

दर्दो-ग़म का शर्तिया होता इलाज
हम मगर हद से गुजरते ही नहीं.

कुछ उजाले का भरम तो टूटता
आप परछाईं से लड़ते ही नहीं.

बेसबब करते हैं मिसरे पे बहस
लफ्ज से आगे निकलते ही नहीं.

एक खेमे में रहे हैं आजतक
हम कभी  करवट बदलते ही नहीं.

-देवेंद्र गौतम





बुधवार, 1 जुलाई 2015

न काफिलों की चाहतें न गर्द की, गुबार की

न नौसबा की बात है, न ये किसी बयार की
ये दास्तान है नजर पे रौशनी के वार की
किसी को चैन ही नहीं ये क्या अजीब दौर है
तमाम लोग लड़ रहे हैं जंग जीत-हार की
न मंजिलों की जुस्तजू, न हमसफर की आरजू
न काफिलों की चाहतें न गर्द की, गुबार की
जहां तलक है दस्तरस वहीं तलक हैं हासिलें
न कोशिशों की बात है न बात अख्तियार की
हमारे पास तीरगी को चीर के चली किरन
तुम्हारे पास रौशनी तो है मगर उधार की
मुसाफिरों के हौसले पे बर्फ फेरता रहा
कहानियां सुना-सुना के वो नदी की धार की
देवेंद्र गौतम 08527149133