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मंगलवार, 5 सितंबर 2017

रह गए सारे कलंदर इक तरफ

वक्त के सारे सिकंदर इक तरफ.
इक तरफ सहरा, समंदर इक तरफ.

इक तरफ तदबीर की बाजीगरी
और इंसां का मुकद्दर इक तरफ.

आस्मां को छू लिया इक शख्स ने
रह गए सारे कलंदर  इक तरफ.

इक तरफ लंबे लिफाफों का सफर
पांव से छोटी है चादर इक तरफ.

इक तरफ खुलती हुई नज्जारगी
डूबते लम्हों का लश्कर  इक तरफ.

रोज हम करते हैं बातें अम्न की
रोज उठता है बवंडर इक तरफ.

-देवेंद्र गौतम


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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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