बस एक फूंक में जलता
दिया बुझा डाला.
जो इक निशान उजाले का था
मिटा डाला.
उसके पुरखों ने बनाया था
उसी की खातिर
उसे पता भी है, किसका
मकां जला डाला?
लगाई आग जो उसने तो शिकायत
कैसी
जो देखने की तमन्ना थी
वो दिखा डाला.
हमारी साख बची है अभी तो
ग़म क्या है
बढ़ा है कर्ज मगर ब्याज
तो चुका डाला.
तमाशबीन की पलकें ठहर
गईं गौतम
ऐसा बंदर था मदारी को ही
नचा डाला.
-देवेंद्र गौतम
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