रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.
अब तो हद से गुज़र रहे हैं हम.
एक छोटे से घर की हसरत में
मुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.
अपने साये से डर रहे हैं हम.
कौन उस रहगुज़र से गुजरेगा
जिसपे गर्म-ए-सफ़र रहे हैं हम.
मुद्दतों से हवा में रहते थे
अब जमीं पे उतर रहे हैं हम.
---देवेंद्र गौतम
behatreen !
जवाब देंहटाएंएक छोटे से घर की हसरत में
जवाब देंहटाएंमुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.
सुभान अल्लाह...कितना मासूम और खूबसूरत शेर है...पूरी गज़ल ही कमाल की है...मेरी दिली दाद कबूल फरमाएं...
नीरज
shukriya
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