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मंगलवार, 14 जून 2011

रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.

रेज़ा-रेज़ा बिखर रहे हैं हम.
अब तो हद से गुज़र रहे हैं हम.

एक छोटे से घर की हसरत में
मुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.




कैसा आसेब है तआकुब में
अपने साये से डर रहे हैं हम.

कौन उस रहगुज़र से गुजरेगा
जिसपे गर्म-ए-सफ़र रहे हैं हम.

मुद्दतों से हवा में रहते थे
अब जमीं पे उतर रहे हैं हम.

---देवेंद्र गौतम  

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक छोटे से घर की हसरत में
    मुद्दतों दर-ब-दर रहे हैं हम.

    सुभान अल्लाह...कितना मासूम और खूबसूरत शेर है...पूरी गज़ल ही कमाल की है...मेरी दिली दाद कबूल फरमाएं...

    नीरज

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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