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मंगलवार, 31 मई 2011

जरा सी जिद ने इस आंगन का.......

(यह ग़ज़ल 28 से 30 मई तक openbooksonline.com पर आयोजित obo लाइव तरही मुशायरा, अंक-11 के लिए कही थी. तरह थी-'जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है.' काफिया-आ, रदीफ़-कराया है.)

समंदर और सुनामी का कभी रिश्ता कराया है?  
कभी सहरा ने गहराई का अंदाज़ा कराया है?

न जाने कौन है जिसने यहां बलवा कराया है.
हमारी मौत का खुद हमसे ही सौदा कराया है.

फकत इंसान का इंसान से झगड़ा कराया है.
बता देते हैं हम कि आपने क्या-क्या कराया है. 


मंगलवार, 24 मई 2011

डूबने वाले को......

डूबने वाले को तिनके के सहारे थे बहुत.
एक दरिया था यहां जिसके किनारे थे बहुत.

एक तारा मैं भी रख लेता तो क्या जाता तेरा
आस्मां वाले तेरे दामन में तारे थे बहुत.

वक़्त की दीवार से इक रोज  रुखसत हो गयी
हमने जिस तसवीर के सदके उतारे थे बहुत.


मंगलवार, 17 मई 2011

कहीं सूरज, कहीं जुगनू का......

कहीं सूरज, कहीं जुगनू का अलम रख देना.
अंधेरे घर में उजाले का भरम रख देना.

बैठकर सुर्खियां गढ़ने से भला  क्या हासिल
झूठ लिखने से तो बेहतर है कलम रख देना.


मंगलवार, 10 मई 2011

हिसारे-जां में सिमटा हूं मैं अब......

हिसारे-जां में सिमटा हूं मैं अब सबसे जुदा होकर.
दिशाएं दूर बैठी हैं बहुत मुझसे खफा होकर.

ये मेरी वज्जादारी है निभा लेता हूं रिश्ते को 
वगर्ना क्या करोगे तुम भला मुझसे खफा होकर.


मंगलवार, 3 मई 2011

पुरानी नस्लों से.......

सुर्ख और ज़र्द लम्हों की कश्मकश ने 
जब-जब 
तुम्हारे वजूद की ऊंची इमारत  को 
बेरब्त खंडरों में तब्दील किया 
और जब-जब
तुम्हारे चेहरे पर 
आड़ी-तिरछी रेखाओं की सल्तनत कायम हुई 
तुम हमारे करीब आये....

तुम हमारे करीब आये
और 
अपने कांपते हुए हाथों से 
एक बोसीदा सी गठरी 
हमारे कंधों पर रखकर 
मुतमईन हो गए....


तुमने कहा-
इसमें वो लालो-गुहर हैं 
जिनकी रौशनी 
अबतक हमारी रहनुमाई करती आई है 
अब....अब तुम्हारे काम आएगी....

सदियां गुज़र गयीं......
हम-तुम 
न जाने कितनी बार मिले 
और...न जाने कितनी बार हमने 
तुम्हारे हुक्म की तामील की.

लेकिन धीरे-धीरे....
तुम्हारे लालो-गुहर 
तुम्हारे हीरे-जवाहरात 
खुरदुरे पत्थरों की शक्ल अख्तियार करने लगे
और हर पत्थर पे सब्त होती गयी
गुलामी की एक लंबी सी दास्तां....
अब तो...
इस बोसीदा गठरी से 
बदबू भी आने लगी है.

इसीलिए इसबार हमने   
अपने हाथों में उठा ली है             
एक जलती हुई मशाल  
और इसी मशाल की रौशनी के सहारे हमने 
अंधेरों की तिलस्मी सियासत के खिलाफ 
बगावत का नारा बुलंद किया है.

मुमकिन हो तो तुम भी 
पुरानी अजमतों के बोझ को  ताक पर रख दो 
और हमारी मशाल की रौशनी के लिए
अपना लहू दो......
अपना..... लहू..... दो....!

----देवेन्द्र गौतम