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शनिवार, 25 जून 2011

फिर उमीदों का नया दीप....

फिर उमीदों का नया दीप जला रक्खा  है.
हमने मिटटी के घरौंदे को सजा रक्खा  है.

खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है. 




एक ही छत तले रहते हैं मगर जाने क्यों 
हमने घरबार पे घरबार उठा रक्खा है.

वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.

कितने पर्दों में छुपा रक्खा है चेहरा उसने 
जिसने हर शख्स को उंगली पे नचा रक्खा है.

----देवेंद्र गौतम 

17 टिप्‍पणियां:

  1. वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
    जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.

    -बेहतरीन...

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  2. खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
    हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है.
    ------
    वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
    जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.

    वाह! बहुत अच्छे ख्याल हैं.

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  3. खूब लिखते हैं ग़ज़ल आप यक़ीनन भाई,
    आपको मैंने अजी दिल में बिठा रक्खा है.

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  4. कितने पर्दों में छुपा रक्खा है चेहरा उसने
    जिसने हर शख्स को उंगली पे नचा रक्खा है.

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति देवेन्द्र जी.
    पहली दफा आपके ब्लॉग पर आया हूँ.मन प्रसन्न हो गया.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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  5. खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
    हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है...
    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! शानदार और उम्दा प्रस्तुती!

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  6. खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
    हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है.

    एक ही छत तले रहते हैं मगर जाने क्यों
    हमने घरबार पे घरबार उठा रक्खा है.

    बहुत खूबसूरत गज़ल

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  7. आदरणीय गौतम जी

    आपके लिए कहूंगा -
    "आपके फ़न से शनासाई हुई है जब से
    ध्यान इस-उससे उसी दिन से हटा रक्खा है"


    हमेशा की तरह लाजवाब ! बेहतरीन ! पुख़्ता कलाम !!
    एक-एक शे'र के लिए मुबारकबाद !

    शुभकामनाओं सहित
    राजेन्द्र स्वर्णकार

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  8. वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
    जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है...

    बहुत ही लाजवाब शेर है ... देवेन्द्र जी ... कमाल की गज़ल कहते हैं आप ...

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  9. वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
    जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.

    वाह बहुत खूब कहा है आपने इन पंक्तियों में ।

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  10. वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
    जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.

    खूबसूरत शेर...
    ग़ज़ल का मतला भी लाजवाब है...

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  11. खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
    हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है.

    बहुत खूब ! बेहतरीन गज़ल..

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  12. खुश्क आंखों पे न जाओ कि तुम्हें क्या मालूम
    हमने दरियाओं को सहरा में छुपा रक्खा है.

    haasile ghazal behad umda aur dil ko chhoone wala sher

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  13. वक़्त की आंच में इक रोज झुलस जायेगा
    जिसने सूरज को हथेली पे उठा रक्खा है.
    bahut sundar v sateek likha hai aapne .aabhar

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  14. 'घरबार', 'हथेली पे सूरज' और 'उंगली पे नचा रखा' वाले शेर काफ़ी प्रभावित करते हैं|

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  15. एक ही छत तले रहते हैं मगर जाने क्यों
    हमने घरबार पे घरबार उठा रक्खा है.

    क्या बात कही....वाह...

    सभी के सभी शेर काबिले तारीफ़...बहुत ही उम्दा ग़ज़ल लिखी है आपने.....

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कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

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