किससे-किससे जाकर कहते ख़ामोशी का राज़.. अपने अंदर ढूंढ रहे हैं हम अपनी आवाज़.
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रविवार, 24 जुलाई 2011
खुदी के हाथ से निकला........
खुदी के हाथ से निकला तो फिर हलाक हुआ.
कफे-गुरूर में हर शख्स जेरे-खाक हुआ.
हरेक तर्ह की आबो-हवा से गुजरा हूं
ये और बात तेरी रहगुजर में खाक हुआ.
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शनिवार, 16 जुलाई 2011
इन्हीं सड़कों से रगबत थी......
इन्हीं सड़कों से रग़बत थी, इन्हीं गलियों में डेरा था.
यही वो शह्र है जिसमें कभी अपना बसेरा था.
सफ़र में हम जहां ठहरे तो पिछला वक़्त याद आया
यहां तारीकिये-शब है वहां रौशन स
बेरा
था.
वहां जलती मशालें भी कहां तक काम आ पातीं
जहां हरसू खमोशी थी, जहां हरसू अंधेरा था.
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शुक्रवार, 8 जुलाई 2011
लाख हमसाये मिले हैं......
लाख हमसाये मिले हैं आईनों के दर्मियां.
अजनवी बनकर रहा हूं दोस्तों के दर्मियां.
काफिले ही काफिले थे हर तरफ फैले हुए
रास्ते ही रास्ते थे मंजिलों के दर्मियां.
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शनिवार, 2 जुलाई 2011
खेल-तमाशे दिखा रहा है......
खेल-तमाशे दिखा रहा है यारब क्या.
हम धरती वालों से तुझको मतलब क्या.
कुछ परदे के पीछे है कुछ परदे पर
उसे पता है दिखलाना है कब-कब क्या.
प्यार से जीना प्यार से मरना है प्यारे!
हम इन्सां हैं और इन्सां का मज़हब क्या.
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