समर्थक

रविवार, 17 जून 2012

रिश्तों की पहचान अधूरी होती है

रिश्तों की पहचान अधूरी होती है.
जितनी कुर्बत उतनी दूरी होती है.

पहले खुली हवा में पौधे उगते थे
अब बरगद की छांव जरूरी होती है.


लाख यहां मन्नत मांगो, मत्था टेको
आस यहां  पर किसकी पूरी होती है.

खाली हाथ कहीं कुछ काम नहीं बनता
हर दफ्तर की कुछ दस्तूरी होती है.

किसको नटवरलाल कहें इस दुनिया में
जाने किसकी क्या मजबूरी होती है.

उनका एक लम्हा कटता है जितने में
अपनी दिनभर की मजदूरी होती है.

-----देवेंद्र गौतम


4 टिप्‍पणियां:

  1. उनका एक लम्हा कटता है जितने में
    अपनी दिनभर की मजदूरी होती है.

    achchha sher.

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह....
    बहुत बढ़िया गज़ल देवेन्द्र जी....
    बहुत खूब.

    अनु

    जवाब देंहटाएं
  3. किसको नटवरलाल कहें इस दुनिया में
    जाने किसकी क्या मजबूरी होती है.

    गज़ब देवेन्द्र जी ... मज़ा आ गया इस शेर कों पढ़ने के बाद ... सच के बहुत करीब है ... लाजवाब गज़ल है पूरी ...

    जवाब देंहटाएं

कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

अच्छी-बुरी जो भी हो...प्रतिक्रिया अवश्य दें