बंद आंखों के सामने है
अतृप्त इच्छाओं का एक कब्रिस्तान......
हर कब्र से उभरती हैं
तरह-तरह की आकृतियां
कुछ डराने वाली
स्याह...खौफनाक
कुछ गुदगुदानेवाली
रंग विरंगी
कुछ सीधी-सादी
कुछ जानी-पहचानी
कुछ अनदेखी...अनजानी
किसी डब्बाबंद फिल्म के
अप्रदर्शित दृश्यों की तरह
घूमने लगती हैं
अवचेतन पटल पर.....
नींद के महासागर की अनंत गहराइयों में
उतरने को बेचैन चेतना के
पांव में लिपट जाती हैं जंजीर की तरह
अपनी यात्रा स्थगित कर
बार-बार लौट आती है चेतना
वापस सतह पर
किसी बेबस गोताखोर की तरह......
हर वक़्त जारी रहती है
साकार से निराकार तक की
यह बाधा दौड़.
---देवेंद्र गौतम
वाह...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अर्थपूर्ण रचना.....
सादर
अनु
गहन अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंइसी का नाम तो जीवन है .. दौडना और दौडना ... बाधाएं आती रहेती हैं पर फिर भी दौडना ... लाजवाब अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी इसी का नाम है। सुन्दर्\
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंहर वक्त जारी रहती है
जवाब देंहटाएंसाकार से निराकार तक की
यह बाधा दौड़.
नए भाव, नई सोच।
बहुत अनूठी बात कह दी आपने।
मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि की नज़्म अच्छी लगी...
जवाब देंहटाएंbahut hi gahre artho'n wali behtareen kavita
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