समर्थक

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

बाधा दौड़


बंद आंखों के सामने है
अतृप्त इच्छाओं का एक कब्रिस्तान......
हर कब्र से उभरती हैं
तरह-तरह की आकृतियां

कुछ डराने वाली
स्याह...खौफनाक
कुछ गुदगुदानेवाली
रंग विरंगी
कुछ सीधी-सादी
कुछ जानी-पहचानी
कुछ अनदेखी...अनजानी
किसी डब्बाबंद फिल्म के
अप्रदर्शित दृश्यों की तरह

घूमने लगती हैं
अवचेतन पटल पर.....
नींद के महासागर की अनंत गहराइयों में
उतरने को बेचैन चेतना के
पांव में लिपट जाती हैं जंजीर की तरह
अपनी यात्रा स्थगित कर
बार-बार लौट आती है चेतना
वापस सतह पर
किसी बेबस गोताखोर की तरह......

हर वक़्त जारी रहती है
साकार से निराकार तक की
यह बाधा दौड़.

---देवेंद्र गौतम

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...
    बेहतरीन अर्थपूर्ण रचना.....

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  2. इसी का नाम तो जीवन है .. दौडना और दौडना ... बाधाएं आती रहेती हैं पर फिर भी दौडना ... लाजवाब अभिव्यक्ति ...

    जवाब देंहटाएं
  3. हर वक्त जारी रहती है
    साकार से निराकार तक की
    यह बाधा दौड़.

    नए भाव, नई सोच।
    बहुत अनूठी बात कह दी आपने।

    जवाब देंहटाएं
  4. मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि की नज़्म अच्छी लगी...

    जवाब देंहटाएं

कुछ तो कहिये कि लोग कहते हैं
आज ग़ालिब गज़लसरा न हुआ.
---ग़ालिब

अच्छी-बुरी जो भी हो...प्रतिक्रिया अवश्य दें