फुगाओं से निकलूं तो आहों में आऊं.
कदम-दर-कदम बेपनाहों में आऊं.
मैं चेहरों के जंगल में खोया हुआ हूं
मैं कैसे तुम्हारी निगाहों में आऊं.
कभी मैं अंधेरों की बाहें टटोलूं
कभी रौशनी की पनाहों में आऊं.
मैं इक सनसनीखेज़ किस्सा हूं गौया
शराफत से निकलूं गुनाहों में आऊं.
अभी तक तो पगडंडियों पे कटी है
किसी रोज तो शाहराहों में आऊं.
कभी मरघटों में मिलूं आग बनकर
कभी बर्फ की कब्रगाहों में आऊं.
पहाड़ों मुझे थाम लेना किसी दिन
मैं थककर अगर तेरी बाहों में आऊं.
-देवेंद्र गौतम
कदम-दर-कदम बेपनाहों में आऊं.
मैं चेहरों के जंगल में खोया हुआ हूं
मैं कैसे तुम्हारी निगाहों में आऊं.
कभी मैं अंधेरों की बाहें टटोलूं
कभी रौशनी की पनाहों में आऊं.
मैं इक सनसनीखेज़ किस्सा हूं गौया
शराफत से निकलूं गुनाहों में आऊं.
अभी तक तो पगडंडियों पे कटी है
किसी रोज तो शाहराहों में आऊं.
कभी मरघटों में मिलूं आग बनकर
कभी बर्फ की कब्रगाहों में आऊं.
पहाड़ों मुझे थाम लेना किसी दिन
मैं थककर अगर तेरी बाहों में आऊं.
-देवेंद्र गौतम
वाह ... बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ... हर शेर खिलता हुआ ...
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